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जेनशासन
"निरर्थकवधत्यागेन क्षत्रिया वतिनो मताः ।" शास्त्रादिग्रहण के विषय में जैन नरेन्द्रकी दृष्टिको सोमदेव यशस्तिलकमें इन शादों में प्रकट करते है
"यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ॥"
जैन' नरेश उनपर ही शस्त्र-प्रहार करते हैं जो शस्त्र लेकर युद्ध में मुकाबला करता है अथवा जो अपने मण्डलका कण्टक होता है । वह दीन, दुर्बल अथवा सदभावनाबाले व्यक्तियों पर शस्य-प्रहार नहीं करते ।।
गृहस्थ स्थूल-हिंसाका त्याग करता है । स्थूल वादका भाव यह है कि निरपराध पक्तियों का संकल्पपूर्ण हिसन कार्य में किया जाय । पुराणों में यह बात अनेक बार सुनने में आती है कि अपराधियोंको यथायोग्य' दण्य देनेवाले चक्रवर्ती आदि अणुव्रतो थे इसमें कोई विरोध नहीं आता । २
जो यह समझते हैं कि जैनधर्मकी अहिंसामें देश्य और दुर्बलताफा ही तत्त्व छिपा हुभा है उनको धारणा उतनी ही भ्रान्त है जितनी उस व्यक्तिकी जो सूर्यको अषकारका पिण्ड समनता है। जैन दृष्टि में न्यायको धर्मसमान महत्त्वपूर्ण कहा है। अमृतच त्यामोन पुरुषार्थ सिद्धपुपायमें स्थितिकरण अंगका वर्णन करते हुए यह बताया है-'न्याय मार्गसे विचलिप्त होने में उद्यत व्यक्तिका स्थितिकरण करना चाहिए ।" अन्यान्य ग्रन्थकारोंने जहाँ 'धर्म' इन्दका प्रयोग किया है वहाँ समतभन्न स्वामीने 'न्याय' शब्दको महणकर विशिष्ट अर्थपर प्रकाश हाला है।
एक समय जब महाराज अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाका स्वयंवर हो रहा था, तब पक्रवर्ती भरतेश्वरके पुत्र अर्ककीति ने उस कन्या-रस्नका लाभ न होने के
१. "दुष्टनिग्नहः शिष्टप्रतिपालनं हि राज्ञो धर्मः न तु मुण्डनं अटाधारणं प।"
-सम्यक्त्यकौमुदी, पृ० १५५ "राशो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः ।। २ ।। न पुनः शिरोमुण्डन जटाधारणादिकम् ॥ ३ ॥"
नीतिवाक्यामृत पृ० ४२ । २. "स्थूलग्रहणमुपलक्षणं तेन निरपराधसंकल्पपूर्वकहिंसादीनामपि ग्रहणम् ।
अपराधकारिषु यथाविधिदण्डप्रणेतृणां चक्रवादीमा अणुव्रताविधारणं
पुराणादिषु बहुशः श्रूयमाणं न विरुध्यते ।" -सागारधर्म० ४,५ । ३. पुरुषार्थसिक्युपाय २८३ रनकरणश्रा० १६ ।