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जैनशासन
जीवका घात हो अथवा न हो, नसावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेके हिसा निश्चित है, किन्तु सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले साधुके कदाचित् प्राणघात होते हुए भी हिसानिमित्तक बन्ध नहीं होता ।
पं० आशाजी तर्क द्वारा समझाते हैं-"यदि भावके अधीन बन्ध भोकी व्यवस्था न मानो जाए, तो संसारका वह कौन-सा भाग होगा, जहाँ पहुँच मुमुक्षु पूर्ण अहिंसक बनने की साधनाको पूर्ण करते हुए निर्माण लाभ करेगा ?
अहिंसापर अधिकारपूर्ण विवेचन करनेवाले अमृत सूरि पुरुषार्थसिद्धघुपायमें लिखते हैं
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"सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः । हिमायतननिवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥ ४९ ॥ परपदार्थ निमित्तसे मनुष्यको हिंसाका रत्र मात्र भी दोष नहीं लगता; फिर भी हिंसाके आप मानों (शों की निवृति परिणामोंकी निर्मलता के लिए करनी चाहिए।
इससे स्पष्ट होता है कि हिँसाका अन्वयव्यतिरेक अशुद्ध तथा शुद्ध परि मोंके साथ है। शेष परित्यागको अहिंसा और उसके सद्भावको हिया साधारणतया लोग जानते हैं । जैन ऋषि मान माया-लोभ, शोक, भय, घृणा आदिको हिंसा पर्यायवाची मानते हैं क्योंकि उनके द्वारा चैतन्यकी निर्मलवृत्ति विकृत तथा मलीन होती है
"अभिमान-भय-जुगुप्सा - हास्या रति-शोक-काम- कोपाथाः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः ॥”
–पु० सिद्धघुपाय ६४ |
आहार- पान आदिकी शुद्धि अहिंसक के लिए आवश्यक है। क्योंकि अशुद्ध आहार अपवित्र विचारोंको उत्पन्न करता है और अपवित्र विचारोंसे कमौका बम्ध होता है। साधकको शक्ति के अनुसार अहिंसाका न्यूनाविक उपदेश दिया गया है। अतः यह पूर्णतया व्यवहार्य है । एक दिरसार नमक भील या । उसने केवल का मांसभक्षण न करनेका नियम ले उसका सफलता के साथ पालन किया या और उन पद प्राप्त किया था। वहाँ इतना जानना चाहिए कि जितने अंश भीलने हिंसाका त्याग किया है उतने अंगमे वह अहसक था, सर्वांश में
१. "विश्वरजीवचिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत । भावसाधन बन्धमोक्ष- चेन्नाभविष्यताम्
- सागार ०४, २३॥