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अहिंसाके आलोकमें
१०७ अहिंसा के आधारपर व्यापक विश्व संस्कृतिका निर्माण करें।"' अत: हमारा आध कर्तव्य परिशुद्ध अहिंसाके स्वरूपको हृदयंगम करना है ।
अहिंसाका यथार्थ स्वरूप राग, द्वेष, । ध, मान, माया, लोभ, भीरुता, शोक, घृणा आदि विकृत भावोंका त्याग करना है। प्राणियों के प्राणों के वियोग करने मात्रको हिंसा समझना अयुक्त है। तात्विक बात तो यह है कि यदि राग, द्वेष, मोह, भीति आदि दुर्भा विद्यमान हैं, तो अन्य प्राणीका घात न होते हुए भी हिंसा निश्चित है । यदि रागादिका अभाव है तो प्राणिघात होते हुए भी अहिंसा है । अमृत चन्द्र स्वामी लिखते हैं
"अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेयोत्पत्तिदिति जिनामा संक्षेपः॥"
-पुरुषार्थसिद्धधुपाय, श्लो० ४४ । रागादिकका अप्रादुर्भाव अहिंसा है, रागादिकोंकी उत्पत्ति हिंसा है । यह जिनागमका सार है।
तत्वार्थसूचकार आचार्य उमास्वामी लिखते हैं
"प्रमत्तयोगात्मागम्यपरोपण हिसा" इस परिभाषामें 'प्रभत्तयोग' शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि राग-द्वेष आदि हैं तो भले ही किसी जीवधारीके प्राणोंका नाश न हो, किन्तु कषायवान व्यक्ति अपनी निर्मल मनोवृत्तिका बात करता है। इसलिए स्व-प्राणघातरूप प्राणव्यपरोपण भी पाया जाता है । भारतीय दण्ड विधान (Indian Penal Code) में किसी व्यक्तिको प्राणघातका अपराधी स्वीकार फरते समय उसमें घातक मनोवृत्ति (Mens rea) का सदभाव प्रधानतया घेखा जाता है। इसी कारण आरमरक्षाके भावसे शस्त्रादि द्वारा अन्यका प्राणघात करने पर भी व्यक्ति वण्डित नहीं होता । धार्मिक दृष्टि से अहिंसाके विषयमें भी अनाचार्योंने यही दृष्टि दी है । महर्षि कुम्बकुम्ब प्रवचनसार में लिखते हैं
"मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स गस्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥"
-20 ३, मा० १७ । 1. "We chinese and Indians the two greatest people of the world
should culturally join together and mingle togetber to create, to establish, co promote a common culture called Sino-Indian Culture entirly base on Abimsa. We shall further create, establish and promote a common world culture on the same basis."-Vide Amrit Bazar Patrika p. 7 and 8, ?:-10-19,