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जैनशासन
દુષ્કાનાં न पुरासीत्कमो "दंड भीत्या
निग्रह' शिष्ट- प्रतिपालनमित्ययम् । यस्मात्प्रजाः
हि लोकोयमपथं युक्तदण्डकरः तस्मात् पार्थिवः "ततो दण्डधरानेताननुमेने नृपान् प्रभुः । तदायत्तं हि लोकस्य योगक्षेमानुचिन्तनम् || २५५ ।। " पर्व १६ |
११४
सर्वा निरागसः || २५१।। "
नानुधावति ।
पृथ्वी जयेत् ॥२५३॥| "
जैन कथानकोंसे इस दृष्टि के रक्षण की पुष्टि होती है। एक राजाने घोषणा कर दी थी कि कि नामक जैनपर्व में आठ दिन तक किसी भी जीवपारीकी हिंसा करनेवाला व्यक्ति प्राणदण्ड पायेगा। राजाके पुत्र एक मेंढको मारकर समाप्त कर दिया। राजाको पुत्रको हिंसनवृत्तिका पता लगा तब अपने पुत्रका मोह त्यागकर जैन नरेशने पुत्र के लिए फाँसी की घोषणा की।
प्राणदण्डके अनौचित्यको हृदयंगम करनेवाले इस उदाहरणमें अतिरेक मानेंगे | किन्तु वीतराग भावसे जब देश में चन्द्रगुप्वादि नरेशोंके समय में ऐसी कठोर दण्ड व्यवस्था थी, तब पापले बचकर लोग अधिक सन्मार्गोन्मुख होते थे । एक जैन अंग्रेज बन्धु इंडसे पत्र भेजकर अपनी जिज्ञासा व्यक्त की थी कि - जैन होनेके नाते हालके महायुद्ध में वह किस रूप में प्रवृत्ति करें ।
यह एक कठिन प्रश्न है। यदि स्वार्थ, अन्याय, प्रपंच, स्वेच्छाचारिताके पोष पार्थ आततायीके रूपमें युद्ध छेड़ा जाता है तो उसमें स्वेच्छापूर्वक सहयोग देनेवाला अनीतिपूर्ण वृत्तका प्रबर्धक होने के कारण निर्दोष नहीं कहा जा सकेगा । इतना अवश्य है कि समष्टिके प्रवाह के विरुद्ध एक व्यक्तिकी आवाज 'नक्कारखाने में तूतो की आवाज' के समान ही अरण्यरोदन से किसी प्रकार कम न होगी । इस विकट परिस्थिति में उसे समुदाय के साथ कदम उठाना पड़ेगा, अन्यथा शायद प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़े । यदि उसमें अन्याय के प्रतीकार योग्य दृढ़ आत्मबलकी कमी हो तो उसे आसक्ति छोड़ युद्धमें सम्मिलित होना होगा। इसके सिवा कोई चारा ही नहीं है । अनासक्तिपूर्वक कार्य करनेमें और आसक्तिपूर्वक कार्य करनेमें बन्धकी दृष्टिसे बड़ा अन्तर है ।
कोई-कोई लोग युद्धको आवश्यक और शौर्यवर्धक मान सदा उसके लिए सामग्रीका संचय करते रहते हैं और युद्ध छेड़नेका निमित्त मिले या न मिले किसी भी वस्तुको बहाना बना अपनी अत्याचारी मनोवृतिकी तृप्ति के लिए संग्राम छेड़ देते हैं। उन लोगोंकी यह विचित्र समझ रहती है कि बिना रक्तपात तथा युद्ध हुए जातिका पतन होता है और उसमें पुरुषत्व नहीं रहता — There