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प्रबुद्ध-साधक 'जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिविधिः । किं करोति विधिस्तेषां येषां आशा निराशता ॥"
-आत्मानुशासन, १६३ । साकवी मनोवृत्ति मोही-जगत्से निराली होती है। महामुनि घनदोलतको तो कोई आशा नहीं करते, सन्मार्गपर अपना कदम बढ़ाने के सिवा जीवनको ममतावश कभी पीछे नहीं लौटते । अकिंचन-पना उनकी सम्पत्ति है। कर्तव्यपालन करते हुए आत्म-जागतिपूर्वक मृत्युको वे जीवन मानते हैं। भला ऐसी बलिष्ठ शानी आत्माओंका दुर्दैव क्या कर सकता है ? । आत्मानुशासनकी वाणी कितनी प्राणपूर्ण है---
"निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् ।
किं करोति विधिस्तेषां सता ज्ञानकचक्षुषाम् ।।१६२।।" इस प्रसंगपर कवि धूम्दावानका नयन विचारपूर्ण है:"सब जिय मिज सम नल गर्ने । निसि दिन जिनवर बेन भने । निज अनुभव रस-रीति धरै । तास कढ़ा कलिकाल करें ।"
पश्चिमके विद्वान् समाधिमरणको महप्ताको न जान उसे आत्मघात (Suicide) समझते हैं। विदेशों में जैनधर्मका प्रचार करनेवाले स्वर्गीय विद्वान् बैरिस्टर चम्पतरायको विद्यावारिधिने इंगलैडो भारत लौटनेका कारण यह बताया था कि अब मेरा रोग काजू के बाहर हो गया है । पश्चिमके लोग समतापूर्वक प्राणोंका उत्सर्ग करना नहीं जानते इसलिए समाधि-मरणकी लालसासे मैं तीर्थकरोंकी भूमि स्वन्देशको लोट आया।
__इस सम्बन्धमे यह जानना आवश्यक है कि जन-शासन में आत्मघातको पाप, हिसा और आत्माका अहितकारी बताया है। भात्मघातमें घबराकर मानसिक दुलप्तावश अपनी जीवन ढोर काटनेको अविबकता पाई जाती है । आत्मघाती आत्माकी अमरता और कमोंके शुभाशुभ फल भोगने के बारेमें कुछ भी नहीं सोच पाता। वह विवेक होन धन यह समझता है कि वर्तमान जीवनदीपाके बुर जानेपर मेरी जीवनसे उन्मुक्ति हो जाएगी। उसके परिणामों में मलिनता, भीति, दैन्य आदि दुईलसाएँ पाई जाती है। समाधिमरण में निर्भीकता और वीरत्वका सद्भाव पाया जाता है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभका परित्यागकर शुद्ध हिसात्मक वृत्तिका पालन समाधिमरणका साधक करता है । यह ठीक है कि आत्म-त्रात और समाधिमरण दोनोंमे प्राणोंका विमोचन होता है; किन्तु दोनोंमें मनोवृत्तिका बड़ा अन्तर है । आत्मघासमें जहाँ मरनेका लक्ष्य है, वहीं समाधिमरणका ध्येय, मृत्यु के योग्य अनिवार्य परिस्थिति आनेपर अपने सद्गुणोंकी रक्षा