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प्रबुद्ध-साधक
अहिंसा पालनार्थ ये मुनिजन वर्षा: काल एक स्थान पर व्यतीत करते हैं । इस सम्बन्धमे 'विद्युन्माला' छन्दमें लिखा गया यह पच कितना मधुर है :जैनी जोगी वर्षाकाले । आपा ध्यावे बाधा टाले 1 कूके की मेघ ज्वाला | चोथा नच्चे विद्युन्माला ||
- शुन्दशतक १४
वे सन्त-जन कमौके फन्दे में फँसकर अपना अहित नहीं करने 1 कर्म के इस जगत में क्रोत्रादि कपायरूपी चोपड़ा खेल जमाना है । उस खेलके चक्कर से दिगम्बर जैन मुनि बचे रहते हैं । किन्तु जगत् के अन्य प्राणी उस खेलमें आसक्तिपूर्वक भाग लेते हैं तथा हारकर पीछे रोते- पछताते हैं। भूषरवासजी कहते हैं
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"जगत जन जूवा हारि चले ।
काम कुटिल संग बाजी मांडी उनकरि कपट छलें ॥ चार कषायमयी जहुँ चौपरि, पांसे जोग रले । इस सरवस, उत कामिनि-कोड़ी. इह विधि झटक चले ॥ कूर खिलार विचार न कीन्हों, हृ हैं ख्वार भले । बिना विबेक मनोरथ काके, 'भूधर' सफल फले ॥"
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जगत् के प्राणी कनक, कामिनी आदिमे अपनेको कृतार्थ मानते हैं। किन्तु, साधककी स्थिति इससे निराली है। मृत्युके नामते जहाँ दुनिया घबराती है, जीवनकी ममतावश जहाँ किये गये बड़े से बड़े अनर्थ क्षम्य माने जाते हैं, वहाँ साक मृत्युको अपना स्नेही तथा परम मित्र मान मृत्यु-कालको महोत्सव मानते हैं । मरणके समय साधक सोचता है
"यह तन जीर्ण कुटी सम आतम, यातें प्रीति न कोजे । नूतन महल मिले जब भाई, तब पामें क्या छोजे ॥"
आत्माकी अमरतापर विश्वास होनेके कारण अपने उज्ज्वल भविष्यका विश्वास करते हुए भावी जीवनको जीर्ण-कुटीके स्थानपर भव्य भवन मानता है । वह पूछता हूँ
"मृत्यु होनेसे हानि कौन है ? - पाको भय मत लाओ । समतासे जो देह तजे तो तो शुभन्तन तुम पाओ ।।
मृग - मित्र, भोजन तपमयी, विज्ञान निरमल नीर | साधु मेरे उर बसौ, मम हरहु पातक पीर ॥"
-भूधरदास
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