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जैनशासन दुर्लभ रत्नत्रय आराधन, दीक्षाका धरना । दुर्लभ मुनिवरको व्रत पालन, शुद्ध भाव करना ।। दुर्लभ-से-दर्लभ है वेतन, बोधि-ज्ञान पाना। पोकर केवल ज्ञान, नहीं फिर इस भवमें आना ||"
-मंगतराय, बारह भावना विषयभोगोंमें मनुष्य-जीवनको लगाने वाले, साधककी दृष्टिमें, अशतापूर्ण काम करते है । उस अनताको बनारसीदासजी इन शब्दों में चित्रित करते है.-- "ज्यों मति-हीन विवेक बिना नर,
साजि मतंग जो ईंधन ढोबे। कंचन-भाजन धूरि भरे शठ,
मूढ़ सुधारस सों पग धोवै ।। बे-हित काग उड़ावन कारन,
____डारि उदधि 'मनि' मूरख रोबै ।। स्यों नर-देह दुर्लभ बनारसि, पाय अजान अकारथ खोवे ।।"
-नाटक समयसार सुकवियों ने अपनी विविध शैलीसे साधकके जीवनपर बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला है । महाकवि भनारसोबास, गृहके त्याग करनेवाले और तपोवन-यासी माधुको सद्गुणरूपी कुटुम्बसे गृहवासी बताते है । देखिए
"धीरज-तात, क्षमा-जननी, परमारथ-मोत, महारुचि-मासी। ज्ञान-सुपुत्र, सुता-करुणा, मति-पुत्रवधू, समता अति भासी ।। उद्यम-दास, विवेक सहोदर, बुद्धि-कलत्र शुभोदय-दासी । भावकुटुम्ब सदा जिनके ढिग यो मुनिको कहिये गृहवासी ।।"
-बनारसीविलास, २०५ । यद्यपि मुनि भूमिपर शयन करते हैं और जीवदयानिमित्त मयूरकी पिच्छी और शुचिताका उपकरण कमण्डलु रखते हैं, फिर भी कवि जन मनोहर भाषामें उनकी सामग्रीको इस प्रकार व्यक्त करते है--
"विन्ध्याद्रिनगरं गृहा वसतिकाः शय्या शिला पार्वती दीपाश्चन्द्रफरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनाङ्गना। विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषा प्रशान्तात्मना धन्यास्ते भवपकनिर्गमपथप्रोदेशकाः सन्तु नः ॥"
-ज्ञानार्णव । शुभचन्द १. 'जे बाह्य परवत बन बसै गिरि-गुफा-महल मनोग ।
सिल-सेज, समता-सहचरी, शशिकिरन-दीपक जोग ।।