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प्रबुद्धन्साधक
कमला चलत न पेंड,-जाय मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सखको रोवें पिता, पुत्र दारा॥ ज्यों मेलेमें पंथी जन, नेह धरें फिरते । ज्यों तरवर पे रैन बसेरा पंछी आ करते ।। कोस कोई, दो कोस कोई उड़ फिर, थक-थक हारे।
जाय अकेला हंस, संगमें कोई न पर मार।।" संसारके विषयमें वह चिन्त बन करता है--
"जन्म मरण अरु जरा रोग से सदा दुखी रहता। द्रव्य, क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन सहता ।। छेदन भेदन नरक पशु गति, बध बंधन सहना । राग-उदयसे दुख सुर गतिमें कहाँ मखी रहना ।। भोग पुण्य-फल हो इक इन्द्री क्या इसमें लाली।
कुनवाली दिन चार फिर बही खुरपा अरु जाली ।" जरसे आत्माको भिन्न विचारता हुआ अपनो आत्माको इस प्रकार साधक सचेत करता है
"मोहरूप मृग-तुष्णा-जलमें मिथ्या-अल चमके। मृग-चेतन नित भ्रममें उठ-उठ दौड़े थकथक के ॥ जल नहिं पावै प्रान गमावे, भटक भटक मरता। वस्तू पराई मान अपनी, भेद नहीं करता। तु चेतन, अरु देह अचेतन, यह जड़, तू ज्ञानी।
मिल अनादि, यतन तें बिछुरें, ज्यों पय अरु पानी ।।" इस घृणित मानव देहको सड़े गन्ने के समान समझ साषक सोचता है
''काना पौंडा पड़ा हाथ यह, से तो रोवे । फल अनन्त जु धर्मध्यानकी भूमि विष बोवे ।। केशर चन्दन पुरुप सुगन्धित वस्तू देख सारी।
देह परस ते होय अपाचन निस-दिन मल जारी ।।" साधनकी अनफूल सामग्रीको अपूर्व मान वे महापुरुष सोचते हैं और अपने अनन्त जीवनपर दृष्टि डालते हुए इस प्रकार विचारते है--
"लभ है निगोद से थावर अरु प्रम-गति पानी । नर-कायाको सुरपति तरसै, सो दुर्लभ प्रानी ।। उत्तम देश स-संगति दुर्लभ श्रावक-कुल पाना । दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुण ठाना ।