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जैनशासन पूर्व बद्ध कर्मोंकी निर्जरा करनेके लिए तया संकट आमेपर मम्मा से अपना कदम पीछे तनिक भी न हटे इस दृढ़ता निमित्त वे भूख, प्यास आदि बाईस परीषहों (-कष्टों) को राग-द्वेष-मोहको छोड़ ग़हन करते हैं । पाश्चपुराणमें इनके नाम यों है
"क्षुधा, तृषा, हिम, उष्ण, इंस-मशक दुख भारी। निराबरन-तन, भरति-खेद उपजावन हारी || चरिया, आसन, शयन, दुष्ट बाधक, बध बंधन । याचं नहीं, अलाभ, रोग, तिण-फरस निबन्धन || मल-जनित, मान-सन्मान-मः, प्रज्ञा और शाक। दर्शन-मलीन बाईस सब-सा परीवह जान नर ॥"
- भूधरदास बहिरात्म-भाववाले भाई सोचते है-'बिना कोई विशेष बलवतो भावना उत्पन्न हुए साघु कष्टोंको भामम्त्रण दे प्रसन्नतापूर्वक किस प्रकार सहन कर सकता है ? पंडित आशापरजीने बताया है कि सत्पुरुष संझटके समय सोचते हैंबास्तवमें मैं मोक्षस्वतप हूँ, अविनाशी हैं, आनन्दका भण्डार हूँ, कल्याणस्वरूप है। कारण रूप है। संसार इसके विपरीत स्वरूप है । इस संसारमें मुझे विपत्तिके सिवाय और क्या मिलेगा ?'
आत्माको अमरतापर अखण्ड विश्वास रख वे नश्वर जगत्के लुभावने रूपके भ्रममें नहीं फसते, सद्भावना के द्वारा कहते हैंमोह मापसे उठ रे चेतन-लनिक सोच तो
"सूरज चांद छिपे निकस, रितु फिर-फिर कर आत्रे, प्यारी आय ऐसी बीते पता नहिं पावे। काल सिंहने मृग-चेतनको घेरा भव-वन में । नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मममें ।। मंत्र-यंत्र सेना धन-सम्पति राज-पाट छुटे ।
वश नहिं चलता, काल-लुटेरा, काय नार लूटै ।।" प्रबुद्ध साधक यह भी विचारता है
'जनमें मरै अकेला चेतन सुख दुखका भोगी।
और किसीका क्या,-इक दिन यह, देह जुदी होगी ।। १. मोक्ष थारमा सुखं निस्पः शुभः शरणमन्यया । मवेऽस्मिन् वसतो मेन्यत कि स्यादित्यापवि स्मरेत् ॥
-सागारधर्मामुत, ५, ३० ।