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जैनशासन
इस प्राप्तका समर्थन है। संन्यासोपनिषदा ऐसे संन्यासीको 'ज्ञान वैराग्य-संन्यासी' कहा है, जिसने सर्व परित्याग कर दिगम्बरस्वको अंगीकार किया है । मैत्रेय उपनिषदमें दिगम्न रत्वके माथ आनन्दको उद्भूतिका उल्लेख है-देशकाल-विमुक्तोऽ स्मि दिगम्बरंसुलोस्म्यहम् ।
पुराण माहिया भी इम सन स्तर ः मोहस्तिता नाना है । शिवपुराणमें एक कथा आई है कि शिवजीन दिगम्बर मुद्रा धारण कर देवदार बनके आश्रमका निरीक्षण किया था । उनके हाथमे मयूरपंखको पिच्छिका भी थी' | कुर्व पुराण, पद्मपुराण", में भी दिगम्ब रत्व समर्थक सामग्री उपलब्ध होती है। शकराचार्यके विवेकचूडामणि में ब्रह्मनिष्ठ योगीको स्वाधीन वृत्तिपर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि उनके वस्त्र दिशा रूपी होते हैं, जिन्हें प्रोने और सुखानेको आवश्यकता नहीं मालूम पड़ती । इस प्रकार प्राचीन भारतीय वाङ्मय का सम्यक अवगाहन करनेपर प्रचुर प्रमाणम श्रेष्ठ साधकोंक दिगम्बरत्त्वकी महिमाको बतानेवाली महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। तत्वदर्शी तो यही सोचता है कि मैं कब आशा रूपी वस्त्रोंको धारण करूंगा।" उस श्रेष्ठ अवस्था में यह जीव पूर्ण निराकुल हो ब्रह्मसाक्षात्कारका आनन्द लेने में समर्थ होता है। आत्म-निमग्नताकी स्थितिम तनश्पनको कैसे सुप रहेगी ! अपने युगके विख्यात संन्यासी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्बन्धमें प्रकाशित "श्री श्रीरामकृष्ण कथामृत' बंगला भाषाकी रचनामें स्वामीजीकी दैनिक-चर्याकी चर्चा की गई है, कि "जग नेपर भक्तोंने देखा प्रभात हो गया है। श्री रामकृष्ण बालकके समान दिगम्बर है और कमरेके भीतर ईश्वर का नाम लेते हुए घूम रहे हैं।" (डायरी १६ मवतूबर १८८२)। थी अस्विनीकुमार दत्तने जो बंगालके विख्यात राजनैतिक नेता थे 'रामकृष्णके संस्मरण' में उनके दिगम्बरत्वको चर्चा की है। स्वयं स्वामी
१. "सम्यस्य जातरूपधरो भवति स मानवैराग्यसंन्यासी ।" २. "विवेशोन्मत्तवेशश्च स्तलिगो दिगम्बर ३. "मयूरचन्द्रिकापुज्ञपिच्छका धारयन् फरे ॥-" शिवपुराण १०-८०, ८२ ४, कूर्मपुराण-उपरिभाग ३७.७ । ५. पद्मपुराण-पातालखण्ड ७२, ३६ ६. "चिन्ताशून्यमदैन्यभक्षमशन पान सरिद्वारिषु
स्वातन्त्र्येण निरंकुशा स्थितिरभोनिद्रा श्मशाने वने । पस्न क्षालन-शोषणादिरहितं दिग्वास्तु शय्या मही
संचारो निगमान्तवीथि विदां क्रीड़ा परे ब्रह्मणि ।।" ७. "आशावासो वसीमहि"