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जनशासन जवा, आमिष, मदिरा, दारी 1
आखेटक, चोरी, परनारी ।। ये ही सात व्यसन दुखदाई। दुरित मूल दुरगतिके भाई ॥
-बनारसीदास, नाटक समयसार साध्यसाधक द्वार । वह साधक धूल झूठ नहीं बोला या प्रणा कता है। स्वामी समन्तभन्न इस प्रकारके सत्य सम्भाषणको भी अपनी मूल-भूत अहिंसात्मक वृत्तिका संहार करने के कारण असत्यका अंग मानते हैं, जो अपनी प्रास्माके लिए विपत्तिका कारण हो अथवा अन्यको संकटोंसे आक्रान्त करता हो । यहाँ सत्यकी प्रतिज्ञा लेने वाले प्राथमिक साधकके लिए इस प्रकारके वचनालाप तथा प्रवृत्ति की प्रेरणा की है जो हितकारी हो तथा वास्तविक भी हो | वास्तविक होते हुए भी अप्रशस्त वषनको त्याज्य कहा है-यही सत्याणुव्रतका स्वरूप है।'
सत्पुरुषोंने अचौर्याणवसमें साधकको दूसरेको रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई और बिना दी हुई वस्तुको न तो ग्रहण करनेकी और न अन्यको देनेकी आज्ञा दी है।
ब्रह्मचर्याणुव्रत के परिपालन निमित्त बताया है कि-बष्ट पापसंचयका कारण होनेसे स्वयं पर-स्त्री सेवन नहीं करता और न अन्यको प्रेरणा हो करता है । गृहस्थको भाषामें इसे स्थल ब्रह्मचर्य, परस्त्रीत्याग अथवा स्व-स्त्रीसंतोष व्रत कहते हैं। __ इच्छाको मर्यादित करने के लिए वह गाय आदि धन, धान्य, रुपया-पैसा, मकान, खेत, वर्तन, वस्त्र आदिको आवश्यकताके अनुमार मर्यादा बांधकर उनसे अधिक वस्तुओंके प्रति लालसाका परित्यागकर परिग्रह-परिमाणन्नतको धारण करता है। इस वसमें इच्छाका नियन्त्रण होने के कारण इसे इच्छापरिमाण नाम भी दिया गया है।
पूर्वोक्त हिंसा, मूठ, कोरी, कुशील और परिग्रन्के त्याग के साथ मद्य, मांस और मधुके त्यागको साधकके आठ मूलगुण कहे है । वर्तमान युगको उछाल एवं भोगोम्मुख प्रवृत्तिको लक्ष्य में रखकर एक आचार्यने इस प्रकार उन मूल गुणोंकी परिगणना की ई
१. "स्थूलमलीक न वदति म परान वाधयति सत्यपि विपदे ।
यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमुपायादव रमणम् ॥" -रत्न श्रा० ५५ ।