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जैनशासन करन विषय वश हिरन अरनमें, खलकर प्राण लुनाव है।
हे मन, तेरीको कुटेव यह करन विषयमें धा है।" एक ओर जहाँ वह विषय और भोगोंने दुष्परिणामको देखता है, तो दूसरी और के माहात्म्से उसकी मारमा प्रभावित हा बिना नहीं रहती । यह तो तृष्णा-पिशाचिनीका काम है, जो भोसकी बुंदके समान विषयभोगोंके द्वारा अनन्त सृषा शान्त करनेका जीव प्रयत्न करता है । वास्तवमें सांसारिक वस्तुओंमें सुख है ही नहीं । महात्मा लोग ठीक ही कहते हैं
"जो संसार विषै सुख होता तीर्थकर क्यों त्यागे !
काहेको शिवन्नाधन करते, संयमसों अनुरागे?" यदि अपनी वास्तविक आवश्यकताओंपर दृष्टिपात किया जाए, तो समर्थ और वोतराग आत्मा मधवारो सिके द्वारा भोजन ग्रहण करते द्वार प्राकृतिक परिधानको धारण कर प्रकृतिकी गोद में बान्मीय विभूतियोंकी अभिवृद्धि कर सकता है। ऐसे व्यक्तिमे इष्ट-अनिष्ट कर्म स्वयं घबराते हैं। यदि आत्माकी दुर्बलता दूर हो जाय और उसमें पाधाविक वासनाएं न रहे, तो समर्थ आत्माको दिगम्बर वेषके सिवा दूसरी मुद्रा नहीं रुचेगी। कारण, उस मुद्रा में उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य की अय स्थिति और अभिवृद्धि होती है । आत्म-निर्भरता और आत्मनिमग्नताके लिए वह अमोघ उपाय है। उम पदसे आकर्षित हो इस ग्रुमके राष्ट्रीय महापुरुष पांधीजी कहत है--"मग्नता मुझे स्वयं प्रिय है" । आदर्श अपरिग्रह तो जसीका होगा, जो कर्मसे दिगम्बर है। मतलब यह पक्षीको भांति बिना घरके, बिना वस्त्रोके और बिना अम्न के विचरण करेगा। इस अबधृत दशाको तो बिरले ही पहुँच सकते हैं । (गांधीवाणी १० ९२) । यथार्थमें श्रेष्ठपुरुष कृत्रिम वस्त्राभूषणादि व्यर्थ की सामग्रीका परित्याग कर प्रकृतिप्रदत्त मुद्राको धारण कर शान्ति लाभ करते हैं।
विषय-वासनाओंके दास और भोगोंके गुलाम स्वयंकी असमर्थता और आरम-दुर्बलताके कारण दिगम्बर मुदाको धारण करने में समर्थ न हो कभी-कभी उस निर्विकार मारविजयकी होतिनी मुद्राको लाञ्छित करने का प्रयान करते हैं। पाश्वंपुराणमें कितनी सुन्दर बात कही गयी है....
"अन्तर विषय घासना बरते, बाहर लोक-लाज भय भारी । तात परम दिगम्बर मद्रा, घर नहि सक दीन संसारी ।।"
किन्तु वीर पुरुषोंकी बात और प्रवृत्ति ही निराली है। कवि इसीसे कहते हैं
"ऐसी दुवर नगन परोषह, जीतें साधु शील प्रतधारी । निर्विकार बालकवत् निर्भय, तिनके पायन ढोक हमारी ॥'