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जैनशासन
यह मनुष्य जीवनकी अनुपम विभूति है जिसे अन्य पर्यायों में पूर्णरूपमै पाना सम्भव नहीं है। विषयवासनाएँ दुर्बल अन्तःकरणपर अपना प्रभाव जमा इंद्रिय तथा मनको निरंकुश करमचंद तावान रहता है । इसलिए चतुर साधक भी मन एवं इंद्रियोंको उत्सथमें प्रवृत्ति करने से बचाने का पूर्ण प्रयत्न किया करता है । ऋविधर यामतराय अपने आस्माको सम्बोधित करते हुए कहते हैं
"काय छहों प्रतिपाल. पंचेंद्रिय मन बश करो।
संजम रतन सम्हाल. विषय चोर बहु फिरत हैं।" अपभ्रंटा मापात्र कवि रइधु संयमको दुर्लभता और लोकोत्तरताको हृदयंगम करते हुए मोही प्रागी को शिक्षा देते हैं
"संयम बिन घडिय म इबक जाह"
प्रबुद्ध-साधक 'जौली देह तेरी काहू रोग सौं न घेरी
जौलौं जरा नाही नेरी जासो पराधीन परिहै । जौली जम नामा बेरी देय न दमामा जौलौं
माने कान रामा बुद्धि जाय ना बिगरिहै ।। तोली मित्र मेरे निज कारज सम्हाल ले रे
पौरुष थकेंगे फेर पाछे कहा करिहै ।। आग के लागे जब झोपड़ी जरन लागी कुवा के खुदाये तब कहा काज सरिहै ॥२६॥"
-ঈন হাবক, মুগদােয় सावकको आत्मा जब गृहस्थ जीवनकी प्रवृत्ति द्वारा संयत बन जाती है तब आयात्मिक करिकी उपर्युक्त प्रबोधक वाणी उस मुमुक्षुको संयमके क्षेत्रमें लम्बा कदम बढ़ानेको पुनः पुनः प्रेरित करती है। यथार्थमे गृहस्प जीवनका संयम और अहिंसादि धोकी परिपालना आरमीक दुर्बलता के कारण ही सगृहोंने बताया है । समर्थ पुरुषको सायन मिलते ही साधनाके श्रेष्ठ पथमैं प्रवत्ति करते विलम्ब