________________
संयम बिन घडिय म इक्क जाह
७३ "सुलझे पस उपदेस सुन, सुलझें क्यों न पुमान।।
नाहर ते भये वीर जिन, पज पारस भगवान् ॥ सप्तसई गापुरूपोंका काशन है, ' मना जोवन एक महत्वपूर्ण हाट है । यहाँको विशेष निधि संग्रम है। जिसने इस बाजारमें आकर संग्रम निधिको नहीं लिया, उसने अक्षम्य भूल की ।'
प्राथमिक अम्मामी साधः लिा. संयमका अभ्यास करनेके लिए आचारदास्थ महान् विधान आशापरजीने लिखा है-'जर तक विषय तुम्हारे सेवनमें नहीं आने, कम-से-कम उतने काल तक के लिए उनका परित्याग करो । कदाचित वती अवस्था में मृत्यु हुई तो दिव्य जोवन अवश्र प्राप्त होगा ।''
दूसरी बास, जितनी तुम्हारी उचित आवश्यकता हो, उसकी सीमाके बाहर विययादिक संवनका सरलतापूर्वक त्याग कर सकते हो । प्राय: अपनी आवश्यकताको भूल लालसाफे अधीन हो यह जीव मारी दुनियासे नाता जोड़ता हुआ-सा प्रतीत होता है ! अतः शान्ति और सुन्नमय जीवन के लिए आवश्यकतासे अधिक वस्तुओंका परित्याग करना चाहिए, जिससे समापश्चक पदा?क द्वारा रागपादि विकार इस आत्माको शान्तिको भंग न करें। गुणभद्र स्वामी ने आत्मानुशासन में
हा है, रागडेपो माह्यार्थसंबद्धो तस्मात् तांश्च परित्यजेल-रागद्वेषका संबंध बाहरी यायोंसे रहता है, अतः सहा वस्तुओंका परित्याग करें। संग्रमका अभ्यास आन्तरिक प्रेरणाके द्वारा सुफल दिलासा है। बीमार व्यक्ति अपने चिकित्सककी आशाके अनुसार गजबूर हो जीवनकी ममताकै कारण सेब्ब पदार्थीका त्याग करता हुआ कभी-कभी बड़े-बड़े महात्माओंकी संयमपूर्ण दृत्तिका स्मरण कराता है । किन्तु , हममें यथार्थ संयमीकी निर्मलता और शान्तिका मदभाव नहीं पाया हाता । भौगोंको नि:सारता और मेरा आत्मा ज्ञान तथा आनन्दका पुंज है, उसे परावलम्बनकी आवश्यकता नहीं है। इस बाकी प्रेरणासे प्रेरित हुआ संयम अपना विशेष स्थान रखता है। महषि कुन्दकुन्दका कथन है.-"जिन तीर्थकरोंका निर्वाण निश्चित है उन्हें भी बिना संयमका आश्रय लिए मुक्ति नहीं मिल सकती।" इससे संयमका लोकोतरपना स्पष्ट विदित होता है । द्वादशांग रूप जिनेन्द्र भारती में आचारांग सूत्रका आय स्थान है, जिसमे भबमपर विशद प्रकाश डाला गया है । दर्शन अध्यात्म आदि सम्बन्धी वाइयका पश्चात प्रतिपादन किया गया है। इससे जनशासनमें संयनकी महत्ता सुविदित होती है।
१. याचना मन्या विषयास्तावत्तानप्रवृत्तितः । प्रतये सती देवान्मृतोऽमुत्र सुजायते ।।
-सामारधर्मामृत २ । ७ ।।