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है सिंहश्रेष्ठ | तू पंचपरमेष्ठियोंको सदा प्रणाम कर । यह नमस्कारण उपमातीत आनन्द प्राप्तिका कारण है और सस्पुरुष उसे इस दुस्तर संसार सिंधु संतरण निमित्त नौका सदृश बताते हैं । ४३।।'
इस दिव्य उपदेशसे वह सिंह जो पहले 'मभ इव कुपितो विना निमित्त अकारण ही यमकी भांति क्रुद्ध रहता था, वह परम दयामूर्ति बन गया । इस अहिंसाकी आराधना द्वारा प्रवर्षमान होते हुए दसवें भवामें वह जीव वर्धमान महावीर' नामक महाप्रभुके रूप में उत्पन्न हुआ | उस हिंसक सिंहने शनै: शनै: विकाम करते हुए तीर्थकर भगवान महावीर के विभुवनपूजित पदको प्राप्त किया। उनके पूर्ववर्ती तीर्थकर भगवान् पाप नाप प्रभुने मदोन्मत्त हाथोकी पर्यायमें महामुनि अरविन्द स्वामी के पास अहिंसात्मक और संयमपूर्ण जीयनकी शिक्षा ग्रहण की। महाकवि भूषरशासने इसपर प्रकाश डालते हुए लिखा
"अव हस्ती संजम साधे । म जीव न भूल विराधे ।। समभाव छिमा उर आने । अरि-मित्र बराबर जाने ।। काया कसि इन्द्री दण्डे । साहस धरि प्रोषध मंडे ।। सूखे तृण पल्लव भच्छे । परमदित मारग गन्छ । हाथीगन डोल्यो पानी । सो पीवे गजपति जानी ।। देखे बिन पांव न राखे । तन पानी पंक न नाले । निज शोल कभी नहीं खोये । हथनी दिशि भूल न जोवे ।। उपसर्ग सहै अति भारी । दुरध्यान तजे दुखकारी ।। अघके भय अंग न हाल । दिन धीर प्रतिज्ञा पाल । चिरलौं दुदर तप कीनों । बलहीन भयो तन छीनो । परमेष्ठि परमपद ध्यावै । ऐसे गज काल गमावे। एक दिन अधिक तिसायो । तब बेगवती तट आयो ।। जल पोवन उद्यम कोषो । कादो व्रह कुंजर बोधो ।। निह जब मरन विचारयो । संन्यास सूधी तब धारयो ।"
-पार्वपुराण, दूसरा सर्ग । तिर्यञ्चोंको भी संयम साघनमें तत्तार देख सुधजनमी मनुष्योंको संयमके लिए उत्साहित करते हुए कहते है
१. अनुपमसुखसिदिहेतुभूतं गुरुषु सदा फुरु पंचसु प्रणामम् । भवजलनिधेः सुदुस्तरस्य लव इति तं कृतबुझ्यो पदन्ति ॥४३॥
-महावीर चरित्र