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जैनशासन
और पवित्रता आदर्शको स्मरण कर अपने जीवनको उज्ज्वल बनानेका प्रयत्न करता है । उसकी पूजा मूर्ति (Idol) की नहीं, आदर्श की ( Ideal ) पूजा रहती है। इसलिए मूर्तिपूजा के दोष उस साधकके उज्ज्वल मार्गमें बाधा नहीं पहुंचाते । जब परमात्मा ज्ञान, आनन्द और शान्तिसे परिपूर्ण है, राग, द्वेष, मोइसे परिमुक्त है, तत्र उसे प्रसन्न करनेके लिए स्तुति गान करना ज्ञानवानका काम नहीं कहा आ सकता | वैज्ञानिक साधककी दृष्टि यह रहती है :
"राग नाश करनेसे भगवन्, गुण कीर्तन में है क्या आश । क्रोध कपाय वमन करनेसें, निन्दा में भी विफल प्रयास ॥ फिर भी तेरे पुण्य गुणोंका, चिन्तन है रोधक जग त्रास कारण ऐसी मनोवृत्तिसे, पाप-पुञ्जका होता ह्रास ॥"
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अपने दैनिक जीवनमे लगे हुए दोपोंकी शुद्धिके लिए वह सत्पात्रों को मा आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभयदान देकर अपने कृता माना है निर्भयोऽभयदानतः । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन अन्तदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिः भेषजाद्भवेत् !!
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उसका विश्वास है कि पवित्र कार्योंके करनेसे सम्पत्तिका नाश नहीं होता; किन्तु पुण्य के अयसे ही उसका विनाश होता है। आचार्य पद्मवि कहते हैं"पुण्यक्षयात् क्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरतः कुरुत सन्ततपात्रदानम् ॥”
वह उसी को सार्थक मानता हूँ जो परोपकार में लगता है । संक्षेप साधक्के गुणों का संकलन करते हुए पंडित आशाघरजी कहते हैं
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"आदर्श गृहस्थ न्यायपूर्वक धनका अर्जन करता है, गुणी पुरुषों एवं गुणोंका सम्मान करता है, वह प्रशस्त और सत्यवाणी बोलता हूं, धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थका परस्पर अविरोध रूपसे सेवन करता है। इन पुरुषार्थोके योग्य स्त्री, स्थान भवनादिको धारण करता है, वह लज्जाशील अनुकूल आहार-विहार करनेवाला, सदाचारको अपनी जीबन-निधि माननेवाले सत्पुरुषोंकी संगति करता है, हिताहित विवार करने में वह तत्पर रहता है, वह कृतज्ञ और जितेन्द्रिय होता है, धर्मको विधिको सदा सुनता है, दयासे द्रवित अन्तःकरण रहता है, पापसे डरता है । इस प्रकार इन चौदह विशेषताओंसे सम्पन्न व्यक्ति आदर्श Terrant श्रेणी समाविष्ट होता है।
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१. न्यायोपात्तां यजन् गुरून् सद्गीस्वर्गं भज
यानुगुणं गृहिणी स्थानालय हीमयः । युक्ताहारविहार आर्यनमितिः प्राणः कृतज्ञो नशी
शृण्वन् धर्मविधि दयालुरघभी: सागारधर्म चरेत् ।। सागारधर्मामृत १ । ११ ।