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प्रबुद्ध-साधक
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नहीं लगता। तीर्थकर भगवान के अन्तःकरणमें जब भी विषयोंसे विरक्तिका भाव जागृप्त होता है, वे त्रिभुवन चमत्कारी वैभव विभूतिको अत्यन्त निर्मम हो दृढतापूर्वक छोड़ देते हैं। ___ तत्त्वज्ञानीका आत्मा सम्पूर्ण परिग्रह आदिका त्याग कर श्रेष्ट माधक उननेको सदा उत्कण्ठित रहता है, किन्तु वासनाएँ और दुर्बलताएँ उसे प्रगतिरी बस पार करती है : जर स समारता साधक होने वा भी बह"संयम धर न सकत पै संयम धारत की उर चटापटी मी।
सदननिवासी, तदपि उदासी, तात आस्रव उदाछटी मी ।।" आन्तरिक अवस्थावाला विलक्षण अफ्नि दन्ता है। वह अपने मनको गम भाते हुए कहता है-अरे मूर्ख, इन भोग और बिरयों में क्या धरा है। इन मनि सेरे अक्षय-मुखके भाण्डारको छीन लिया है । अदन्त ज्ञाननिधिको लूट रहा है और तू अनन्त बलका अधीश्वर भी है, इसका पता तक नहीं चल पाता । यदि तू स्वयं नष्ट होनेवाले विषयों का परित्याग कर दे. तो सपार-संसरण मक सकता है। बाबीसिंह सूरि सपनाते हैं....
''अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यात् मुक्तिः संसृतिरन्यथा ।।"
--भत्रचूडामणि-११६७ आध्यात्मिक कवि दौलतरामजी अपने मनको एक पद में समझाते हुए कहा है कि यह विषय तुझ अपने स्वरूपको नहीं देखने देते और
'पराधीन छिन छीन समाकुल दुर्गति विपति चलायें हैं" प्रकृति के अन्तस्तलका अन्तद्रष्टा बन कवि र कर्म अत्याचारों को ध्यान में रखते हुए सोचता है कि जब छोटे-छोटे प्राणियोंको एक-एक इन्द्रिारक पीछे अवर्णनीय यातनाओंका मामना करना पड़ता है. तब सभीका आसनिपूर्वक सेवन करनेवाले इस नरदेहधारी प्राणीका क्या भविष्य होगा
"फरस विषयके कारन बारन गरत परत दुख पावं है। रसना इन्द्री वश झप जलमें क.ण्टक कण्ड छिदावे है । गंध लोल पंकज मुद्रितमें, अलि लिज प्राण गमावं है । नयन विषय वश दीप शिखामें, अंग पतंग जराव है ।। भगवान ऋषभदेवक विषय में स्वामी समन्तभदने लिया है
"विहाय यः भाग-दाशि-वागम् वधूमिमां वसुधा-वधू सतीम् । मुमुक्षुरिश्वाकुकुलादिरालगवान् प्रभुः प्रववाज महिष्णुरच्युसः ।।"
-स्वयम्भूस्तोत्र , ।