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जनशासन
इस प्रसंगमें यह बात विशेप रीतिसे हृदयंगम करनेकी है, कि शरीरका दिगम्बरल स्वयं साध्य नहीं, साधन है। उसके द्वारा उत्कृष्ट अहिंसात्मक दतिको उपलब्धि होती है, जो अखण्ड शान्ति और सर्वसिद्धियोंका भण्डार है। दिगम्वरत्वका प्राण पूर्ण दाणों में समर्थन करने वाले महर्षि कुन्धकुन्दने जहां यह लिखा है कि -"णग्गो हि मोर समग्गो, सेसा उभागमा सम्मे"-दिगम्बरत्व ही मोक्षका मार्ग है, शेप सब गार्ग नहीं हैं। वहां वे यह भी लिखते हैं कि शारीरिक दिगम्वरत्वके माप मानशिक दिगम्बरत्व भी आवश्यक है। यदि शरीरकी नग्नता साधन न हो, साध्य होती, तो दिगम्बरत्वकी मुद्रास अंकित पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियोंका मुक्त होते देर न लगती । जो व्यक्ति इस बातका स्वप्न देखते है, कि वस्त्रादि होते हुए नो श्रेष्ठ अहिमा-वृत्तिका रक्षण हो सकता है और इसलिए निर्वाणका भी लाभ हो सकता है, उन्हें सोचना चाहिए कि बाहा वस्सुओंके रखने, उठाने आदिम मोह ममताका सद्भाव दूर नही किया जा सकता ।
एक माधुको कथा प्रसिद्ध है-पहिले तो वह सर्व परिग्रहित था, लोकानुरोधस उनने का लंगोटियां स्वीकार कर ली । चूने द्वारा एकवार वन कट गए, तब निश्चित संरक्षणनिमित्त नहेकी औपधिके लिए बिल्ली पाली गई। और, बिल्ली के दुग्धनिमित्त गौकी व्यवस्था भक्तजनों के प्रेम कारण स्वीकार कर ली गई। गायके चरान के लिए स्वान लानकी दुष्टिसे कुछ चरोजर भमि भी एक भक्तमे मिल गई। वहत है-भूमिका कर समयपर न चुकाने से साधुजीसे अजानकार राज-कर्मचारी ने उनकी बहुत बुरी तरह मान-मरम्मत की। उस समय शान्त अंतःकर गर्ने अपनी आवाज द्वारा उन्हें सर्चत किया-"भले भादमी, परिग्रह तो ऐसी आफ पुरस्कार प्रदान किया ही करता है"
"कोस तनक सी तन में साल ! चाह लंगोटीकी दुख भाले । भाले न समता मुख कभी नर बिना मुनि मुद्रा धरे। धन नगन' पर सन-नगन ठाढ़े सुर-असुर पानि परे ।।"
-छानतराय प्रवचनसारमें कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा हैमनियोंके गमनागमनादिरूप चेष्टासे त्रस, स्थावर जीदोंका वध होते हुए
१. पर्वत । २. "हदि वा ण नदि बंधो पदम्हि जीवैध का य पट्टम्हि 1
बंधो धुयवधी दो इदि समणा छड्डिया सम्वे ।। यहि हिरवेक्खो नागो ण हवदि भिक्खुम्स आसय-बिसुद्धी । अविस्वस्थ य चित्ते कहं णु कम्मक्खो घिहिओ।