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जैनशासन
मनो-जयके लिए आत्माको बहुत बलिष्ठ होना चाहिए । संसारकी चमकदमक और मोहक सामग्रीको पा जो आपके बाहर हो जाता है, वह आरम-विकासके क्षेत्रमें असफल होता है।
मन सबपर असवार है मनके मते अनेक !
जो मन पर असवार हैं वे लाखनमें एक ।। मनो-जयकी कठिनताको चिनोदपूर्ण भाषामें एक स्वर्गीय जैन विद्वान इस प्रकार समझाते थे-“चालीस से कहा की अन होता को नो दाना भी जानता है ।" 'इसी प्रकार चालीस सेर नहीं शेर (Tiger) से अधिक आस्मीक शक्ति रखनेपर मनको जोतनेकों समर्थ हो सकता है।'
साधक आत्मदर्शनके द्वारा भौतिक पदापोंकी निज स्वरूपसे भिन्नताको समझते हुए और इसी तत्त्वको हृदयंगम करते हुए अपनी आत्माको राग, द्वेष, मोह, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कलंकोंसे निर्मल करने के लिए जो प्रयत्न आरम्भ करता है, यथार्थमें वही सदाचार है, बहो संयम है और उसे ही सम्यक्त यारित्र कहते हैं । इसके बिना मुक्ति-मार्गके लिए मुमुक्ष पूर्णतया पंगु है । स्वामी समस्तमा कहते हैं
"मोहरूपी अन्धकारके दूर होमेपर दर्शन-शक्तिको प्राप्त करनेवाला तरवज्ञानी सरपुरुष राग, द्वेष दूर करनेके लिए चारित्रको धारण करता है । रागढेषके दूर होने से हिंसादिक पाप भी अनायास छूट जाते हैं ।" वे यह भी लिखते हैं कि--हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पापके कारणोंसे जीवका विमुख होना चारित्र है ।"' आचार्य अमृतशत सम्पूर्ण पापोंके परित्यागको चारित्र कहते हैं और बताते है कि कषाविमुक्त, उदासीन, पवित्र आत्मपरिणतिस्वरूप चारित्र है । हिंसा आदिका पूर्णतया परित्याग करनेमें असमर्थ प्राथमिक साधकके लिए उनका आशिक परित्याग आवश्यक है। पुरुषार्थसिधुपायमें अमृतचन्न स्वामी कहते हैं- झूठ, चोरो मादिम आत्माकी निर्मल मनोवृत्तिके हननकी अपेक्षा समानता होने से सह पाप हिंसात्मक ही हैं । स्पष्टतया समझाने के
1. रनकरण्डश्रावकाचार ४७ । २, पारिष भवति यतः समस्तसावद्यमोगपरिहरणात् ।
सकलकषायधिमुवतं विशदमुदासीनमात्मरूपं सत् ॥३९॥ ३. "नात्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्, सर्वमेव हिंसैतत् । । अमृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।४२॥"
-पुरुषार्यसिद्धधुपाय।