________________
विश्व-स्वरूप
४३
युक्त रूप हैं। प्रतीत होता है कि यूरोपियन होनेके कारण डारविनको सन्तुलनके लिए अपने देशवासी बन्दर और मनुष्यों में भिन्तुना करनी पड़ी होगी । इसीलिए विनोद-शील शायर अकबर कहते हैं
"बकौले डारविन हरजते आदम थे बुजना (बन्दर) | ही कों हमको गया यूरोपक इंसा देखकर "
यह बताया जा चुका है कि विश्वमें सचेतन-अचेतन तत्वोंका समुदाय विश्वविविधता तथा ह्रास अथवा विकासका कार्य किया करता है। आत्मतत्वके स्वतंत्र अस्तित्व के विषयमें पर्याप्त विचार हो चुका; अतः जड़तत्त्वके विषयमें विशेष जिस जड़ तत्त्वका हम स्पर्शन, रसना, घ्राण, यक्षु तथा कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण अथवा उपभोग करते हैं, उस अड़सत्त्व
विचार करना आवश्यक
|
रस, गन्ध तथा वर्ण
को जैन दार्शनिकों ने 'पुद्गल' संज्ञा दी है। जिसमें स्पर्श, पाये जाते हैं उसे पुद्गल ( Matter) या मैटर कहते हैं । सांख्य दर्शन के शब्दकोशका 'प्रकृति' शब्द पुद्गल को समझने में सहायक हो सकता है । अन्तर इतना है कि प्रकृति सूक्ष्म है और जिस प्रकार पुद् गलका प्रत्येकको अनुभव होता है इस प्रकार प्रकृतिका बोध तबतक नहीं होता जब तक कि यह महत् अहंकार आदि रूपमें विकसित होती हुई वृहत् मूर्तिमान् रूपको धारण न कर ले |
पुद्गलमें रूपर्श, रस, गन्ध तथा वर्णका सद्भाव अवश्यम्भावी है'। ये चारों गुण प्रत्येक पुद्गलके छोटे-बड़े रूपमें अवश्य होंगे। ऐसा नहीं है कि किसी पदार्थमें केवल रस अथवा गन्ध आदि पृथक-पृथक हों । जहाँ स्पर्श आदिमेंसे एक भी गुण होगा, वही अन्य गुण प्रकट या अप्रकट रूपमें अवश्य पाये जायेंगे । वैशेषिक दर्शनकारकी दृष्टि में वायुमें केवल स्पर्श नामका गुण दिखाई देता है। यथार्थ बात यह है कि पवन में स्पर्शके समान रस, गन्ध, वर्ण भी हैं, पर वे अनुभूत अवस्थामें है । यदि केवल स्पर्श ही पवनका गुण माना जाए तो हाइड्रोजन ऑक्सीजन नामको पवनोंके संयोगसे उत्पन्न जरुहमें भी पवनके समान रूपका दोष नहीं होना चाहिए था। जब जलपर्याय में रूप आदिका बोध होता है तब बीजरूप पवनमें भी स्पर्श आदिके समान रूप आदिका भी सद्भाव स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार जड़-तत्त्वके विषयमें अनेक दार्शनिकोंकी भ्रान्त धारणाएं हैं । वस्तुत: देखा जाए तो पुद्गल अगणित रूपसे परिवर्तनका खेल दिखाकर जगत्को चमत्कृत करता है । चार्वाकके समान पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुरूप भूतचतुष्टय पृथक अस्तित्व नहीं रखते । जो पुद्गल -परमाणु पृथ्वीरूपमें परिषत होते है, अनुकूल सामग्री पाकर उनका जल पदनादिरूप परिवर्तन हुआ करता है । दृश्यमान जगत् में
१. "स्पर्श रसयन्ववर्णवन्तः पुद्गला : " तस्वार्थसूत्र, अ०५ सू० २३