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जैनशासन
या महत् परिमाणवाला पदार्थ ही नित्य हो, अविनाशी हो और मध्यम परिमाणबाले पदार्थ विनाशशील हों, ऐसा कोई परिमाणकृत नित्यानित्यत्वका नियम नहीं पाया जाता। जब एकान्त नित्य अथवा अनित्य स्वरूप वस्तु ही नहीं है तब अनित्यताकी आपत्तिवश अनुभवमें आनेवाली आत्माकी मध्यमपरिमाणताको सुलाकर प्रतीति और अनुभवविरुद्ध मात्माको प्रणुपरिमाण या महत्परिमाणवाला मानना तर्कसंगत नहीं है। ऐसा कोई अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है कि मध्यमपरमानवाला अनित्य ही हो और अन्यपरिमाणवाला नित्म | अतः तस्वार्थ सूत्रकारने ठोक लिखा है कि- प्रदीपके समान प्रदेशोंके संकोच विस्तार के द्वारा जीव लोकाकाश होनाधिक प्रदेशोंको व्याप्त करता है |
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जैन दार्शनिकोंके द्वारा वणिजय काग, काल नामक प्रव्यों की मान्यता के विषयमें अनेक दार्शनिकोंकी सहमति प्राप्त होती हूँ । feng धर्म और अधर्म नामक द्रव्योंका सद्भाव जैनदर्शन की विशिष्ट मान्यता है और जिसे माने बिना दार्शनिक चिन्तना परिपूर्ण नहीं कही जा सकती । गम्भीर विचार करनेपर विदित होगा कि जिस प्रकार अपने स्थानपर रहते हुए पदार्थ में नवीनता - प्राचीनतारूपी चक्रका कारण काल नामक द्रव्य माना है और सम्पूर्ण द्रव्योंकी अवस्थिति के लिए अवकाश देनेवाला आकाश द्रव्य स्वीकार किया है, उसी प्रकार क्षेत्र क्षेत्रान्तर जाने में सहायक तथा स्थितिमें सहायक (mediura ) धर्म-अधर्म नामक द्रश्योंका अस्तित्व अंगीकार करना तर्कसंगत है।
ये जीवादि छह द्रव्य कभी कम होकर पाँच नहीं होते और न बड़कर सात होते हैं । जिस प्रकार समुद्र में लहरें उठा करती हैं। विलोन भी होती हैं, फिर भी जलकी अपार राशिवाला समुद्र विनष्ट नहीं होता उसी प्रकार परिवर्तनकी भँवर में समस्त द्रव्य घूमते हुए भी अपने-अपने अस्तित्वको नहीं छोड़ते । इस द्रव्यसमवायमेसे अपने आत्मतत्वको प्राप्त करने का ध्येय, प्रयत्न तथा साघना मुमुक्ष मानवकी रहा करती है । विश्वका वास्तविक रूप समझने और विचार करनेसे यह आत्मा भ्रम से बचकर कल्याणकी ओर प्रगति करता हूँ ।
इस विश्वके वास्तविक स्वरूपका विचार करते-करते आत्मा विषयभोगोंसे विरक्त हो विलक्षण प्रकाशगुफ्त दिव्य जीवनको ओर झुकता है । देखिए, एक कवि कितने उद्बोधक शब्दोंसे मानव आकृतिबारी इस लोक और उसके द्रव्योंका विचार करता हुआ आत्मोन्मुख होने की प्रेरणा करता है---
१. प्रदेश संहार विसर्पाम्यां प्रदोषवत् । " ० सूत्र ५। १६ । २. "नित्यावस्थितान्यरूपाणि "--त० सूत्र ५-४ |