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आत्म-जागरणके पथपर होगा कि आगिनी बिहडा, - और तदनुरूप प्रवति करनेपर ही साधक साध्यको प्राप्त कर सकेगा ।
दुनिभि पत्र प्रकारकी वस्तु या विभूतिया सरलताम उपलब्ध हो सकती है। किन्तु आत्मोद्धार की विद्याको पाना अत्यन्त दुर्लभ हैं। किनी विरले भाग्यशालीको उरा वितामणिरत्न तुल्या परिशुद्ध दृस्टिकी उपलब्धि होती है। अपने पारम राणमें कवियर भूधरदासजी भगवान् सानायके पुर्व भोंकावर्णन करते समय वज्रयन्त चक्रवर्तकी मानताका चित्रण करने हु" कहते है--
"धन कन कञ्चन राजसुख, संबहि सुलभ कर जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।। इस प्रकार की दिवायोति अथवा मैदानिक दृष्टि गम्वित गायककी जीवनलीला मोही. बहि टि. मिश्यान ना जानेवाले प्राणोंगे जुभी होती है। वह माधक योगी, अंपो. मोही अविनको भगवान् मानकर अभिवन्दना करनेको उद्यत नहीं होता। कारण वह एगे कार्यको दधतासम्बन्धी मनता माझता है। वह भोगो, बन-दौलत आदि मामग्री धारण करनेवाले तथा हिंगा आदिकी ओर raf बग्नेवाले समार-मागरमें इबा हा व्यक्ति जो गुफ नहीं मानसा, क्योंकि वह भलीभांति समझता है कि वे तो 'जन्म जल उपल नाव' के समान रासारसिन्धुम हुनाने वाले कुगुम हैं । वह समीक्षक नदी, तालाब आदिमें स्नान करनेको कोई आप्रातिपक यदुत्व न दे, उसे लोक-पढ़ता मानता है। वह जान, कुल, जाति, बल, वैभव, मन्मान, गरीर, तपस्या आदिके कारण अनिभान नहीं करता: क्योंकि उसवी तत्व-ज्ञान ज्योतिम मब भात्मायें रामान प्रतिभासित होती है।
मह गुणवान्का असाधारण आदर करता है । तात्विक दृष्टि सम्पन्न चाण्डाल तो क्या, पण तवका वह देवतामे अधिक सम्मान करता है। क्योंकि शरीर अथवा बाह्य वैभव मध्यमे विद्यमान जीवपर अपने तत्वज्ञान की एक्स-रे नामक किरणोंको डालकर बह सम्यक्-बोधरूपी गुणको जानता है और बाह्य मोंद या वैभवके द्वारा दिमुग्ध नहीं बनता । अपनी पवित्र श्रज्ञाकी रक्षाके लिार भय, प्रेम. लालच अयश आशावत हो स्वप्नमे भी रागी-देषी दव, हिमादिके पोषक शस्त्ररूप शास्त्रों तथा पापमय प्रवृत्ति करनेवाले पानंही तपस्वियोंको प्रणाम, अनुनय बिनम आदि नहीं करता । सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेदी प्रभुको वाणीमें उसे अटल श्रद्धा रहती है । संसारके भैगोंको काँके अधीन, नश्वर, दुःखमिथित और पाएका बीज जाम यह उनकी आकांक्षा नहीं करता । आत्मत्य की उपलब्धिको देवेन्द्र या चक्रवर्ती आदिके धैभबसे अधिक मूल्यकी आंकता है । वह शरीरके सौंदर्यपर मुग्ध नहीं होता, कारण कविवर दौलतरामजी की भाषामें शरीरको