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आत्म जागरणके पथपर
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महाराज दशरथने मुझे सम्पूर्ण दण्डक वनका राज्य दिया है। इस मोहो मानवकी सम्यक्ज्ञानके प्रभावसे कैसी विलक्षण वीतरागतापूर्ण पवित्र मनोवृति हो जाती है !
नरक में शारीरिक दृष्टिसे वह अवर्णनीय यातनाओंको भोगता है, यह कौन न कहेगा ? किन्तु प्रबुद्ध कवि दौलतरामजी अपने एक पदमें कहते हैं :"वाहर नारक कृत दुख भोगत, अन्तर समरस गटागटी । रमत अनेक सुरनि सँग पे तिस, परनतिसे नित हटाहूदी ||"
इस आत्मसाधनाका प्राण निर्भीकता है। जिसे इस लोक परलोक मरण आदिको चिन्ता सताती है, वह साधना मार्ग में नहीं चल सकता | इसलिए महापनि प्रत्येक कविता है ।
गीताके शब्दों में तो ऐसे आत्मदर्शके हृदय में यह वृढ़ विश्वास जमा रहता है-
" नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापः न शोषयति मारुतः ॥ २२३ ॥
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इस आत्माको शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल गीला नहीं करता और न पवन ही इसे सुखाता है ।
आत्म-शक्ति अथवा आत्माके गुणों के विषयमें यथार्थ विश्वास (सम्यक दर्शन ) और सत्यज्ञानके समान सम्यक् चारित्रकी भी अनिवार्य आवश्यकता है । साबनाकी भूमिकारूप विशुद्ध श्राद्धकी आवश्यकता है । यथार्थबोध भी निर्वाणके लिए महत्त्व - पूर्ण है। इसी प्रकार साधना के लिए शील, सदाचार, संयम आदिका जीवन भी अपना असाधारण महत्त्व रखता है। विशुद्ध आचरणकी ओर प्रवृत्ति हुए बिना आत्मशक्ति और विभूतिकी वर्षा काल्पनिक लड्डू उड़ाने जैसी बात है। मन मोदकसे भूख दूर न होगो । सभ्य वारित्रके द्वारा जीवन में लगी हुई अनादिकालीन कालिमाको निकालकर उसे निर्मल बनाता होगा । आजका भोग-प्रधान युग ज्ञानके गोल सुनकर आनन्दविभोर हो झूमने या लगता है; किन्तु बिना पुण्याचरणके यथार्थ आनन्दका निर्भर नहीं बहता आनन्दरूपी सुवाससे युक्त कमलपुष्प के नीचे फष्टकों का जाल है। उनसे डरनेवालेको पंकजकी प्राप्ति और उसके सौरभका लाभ कैसे हो सकता है ? अनन्तकालसे लगी हुई दुर्वासना और विकृतिको दूर करना सम्वक्चारित्रका सहयोग पाये बिना असम्भव है | अतः आगे साधना विशिष्ट अंगभूत आचारके विषयमें विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है ।