________________
आत्म-जागरणके पथपर "शकचक्रधरादीनां केवलं पुण्यशालिनाम् ।
तृष्णाबीजं रतिस्तेषां सुखबाप्तिः कुतस्तनी ।'' ऐसे साधककी मनोवृत्ति के विषयमें अध्यात्म साधना के पथमें प्रवृत्त साधकवर बमारसोवाप्तजी अपने नाटक समयमार में लिखते हैं
जैसे निसि बासर कमल रहै पक ही मैं,
पंकज कहावे पे न बाके ढिग पंक है । जैसे मंत्रवादी विषधर सौं गहावे गात,
की संगति वा विदा चिनक है। जैसे जीभ गहै चिकनाई रहे रूखे अंग,
पानीमें कनक जैसे कायसौं अटक है । तेसे ज्ञानवंत नाना भौति कति ठाने,
किरिया तें भिन्न माने यात निकलंक है ।। योगविद्याको अनुभूति करभेवाले योगिराज पूज्यपाद आत्मबोधको भवयाघियोंको उन्मूलन करनेमें समर्थ औषध बतलाते हैं---
"मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः
त्यक्त्वेनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापतेन्द्रियः' ।। १५॥" ___ संसारपरिभ्रमणका कारण पूज्यशद स्वामी की दृष्टि में शरीर में आत्माकी भावना करना है विदेहत्व-निर्वाणका बीज आत्मामें आत्म-भावना है
"देहान्तरगतेबीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना।
बीजं विदेहनिष्पत्तः, आत्मन्येवात्मभावना ॥७४।।" इस आत्म-दृष्टिके वैभवसे संपन्न साधकके पास किसी प्रकारको भौति नहीं रहती। उसको दृष्टि सदा अमर जीवन और अविनाशी आनन्दकी ओर लगी रहती है। उसकी श्रद्धा तो महषि कुन्दकुन्दके शब्दोंमें यह बात टंकोस्कोर्णसी हो जाती है कि-मेरा बाल्मा एक है, ज्ञानदर्शन-समन्वित है, बाकी सब बाह्य पदार्थ है- सम संयोगलक्षणवाले हैं, आत्माके स्वरूप नहीं है
“एगो मे सासदो आदा, गाणदसणलक्षणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग-लपखणा॥" - भावपाहरु जब ऐस उज्ज्वल विचार मात्मामें स्थान बना लेते हैं, तब मृत्युसे भेंट करानेवालो मुसीबत भी उस ज्ञानज्योतिर्मय सारमाको संतप्त नहीं करती। इसका यह
१. समाधिशतक । २. समाधिशतक।