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जैनशासन प्रकृति भक्त कवि बई सवर्थको निम्न पंक्तियाँ इस प्रसंगमें उद्बोधक प्रतीत होली है
*The world is too much with us; late and soon, Getting and spending, we lay waste our powers, Little we see in Nature that is ours; We have given our hearts away, a sordid Doon?
नारि हम माननिकाला लोकपा मग हूँ । व्यापार आदिके लेन-देनके हेतु हम प्रातः शीघ्र ही उठले हैं और रात्रि में देरसे मोते है। इस प्रकार हम अपनी शक्तिको नष्ट कर रहे हैं। हमें 'प्रकृति के लिए कुछ भी चिन्ता नहीं है; यद्यपि वह हमारी स्वयंको वस्तु है। हमने हुदरको कहीं दूसरी जगह फंसा रखा है । वास्तवमै यह मलिन वरदान बन गया है ।
फंसी विचित्र बात है कि यह आरमा अनन्त अनात्मपदार्थोकी ओर चक्कर मारने अथवा दौडधूप करनेके वैभाविक कार्यको स्वाभाविक मानता है और साधनाके सच्चे भार्गरूप अपने स्वरूपकी उपलब्धिको भार रूप अनुभव करता है। स्वामी कुन्दकुन्द बताते हैं
"सुदपरिचिदाणुभूदा सव्यस्सवि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलभो णबरि ण सुलभो विहत्तस्स ॥१४॥"
समयसार
काम और भोग सम्बन्धी कथा इस जीवने अनन्त बार मुनी, उसका अनन्त बार परिचय पाया और अनन्त बार अनुभव भी किया। यह जीव, अमृत संद्राचार्यके शब्दोंमें 'महता मोहग्रहेण गोरिय वाह्यमानस्य' बलवान् मोहरूपी पिशाचसे बलके सदृश जोता गया है। इसलिए काम-भोग सम्बन्धी कथा सुलभ मालम पड़ती है, किन्तु कर्मपुजसे विभक्त अपने आत्माका एकपना न तो कभी सुना, न परिचयमें आया और न अनुभवमें आया; इसलिए यह अपना होते हुए भी कठिन मा लूम पड़ता है। ___ कर्म-भार हलका होनेपर, वीतराग बाणीका परिशीलन करनेपर और संतजनोंके समागमसे सायकको वह विमल दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके सद्भावमें नारकी जीव भी अनन्त दुःखोंके बीच में रहते हा विलक्षण आस्मीक शान्तिके कारण अपनको कृतार्थ सा मानता है और जिसके अभाव में अवर्णनीय लौकिक सुखोंके सिंधुमें निमग्न रहते हुए भी देवेन्द्र अथवा पक्रवर्ती भी वास्तविक शांतिलाभसे वंचित रहते हैं । पंचाध्यायीकार कितने बळके साथ यह बताते है--