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जैनशासन
"पल रुधिर राधमल थेली कीकस बसादि तें मेली ।" समझता है । और जानता है कि यह यथार्थमें कैसी है
"मत कीज्यो जी यारी, घिनगेह देह जड़ जानके, मात तात रज-वीरज सौ यह उपजो मल- फुलवारी । अस्थि, माल, पल, नसा-जालकी, लाल-लाल जल क्यारी ॥ मत० ॥ कर्म-कुरंग थली- पुतली यह, मूत्र- पुरोष धर्म-मढ़ी रिपुकर्म घड़ी, धन-धर्म जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन स्वेद, मेद, कफ क्लेदमयी बहु मद गद व्याल पिटारी ॥ जा संयोग रोग भव तोल, जा वियोग शिवकारी ।
भंडारी
चुरावन हारी ||मल ॥ सर्व बिगारी |
बुध तासों न ममत्व करें - यह मूढ़ मलिन को प्यारी || मत || जिन पोषी ते भये सदोषी तिन पाये दुख भारी । जिन तप ठान ध्यानकर शोषी तिन परनी शिवनारी ॥ मत || सुर-धनु, शरद-जलद, जल बुदबुद, त्यों झट विनशन हारी । या भिन्न जान निज चेतन 'दौल' होह शमधारी ॥
मत कोज्यो जी यारो, घिनगेह देह जड़ जानके ।'
इसलिए शरीर के प्रति आदर न करते हुए भी गुणोंसे विशिष्ट शरीरको वह अमूल्य वस्तु मानता है । गुणवान् वीतराग, निस्पृह, करुणामूर्ति मुनीन्द्रोंके दुर्बल, मलीन, क्षोण शरीरको वह सौन्दर्य के पुंज मोही प्राणियोंके देहकी अपेक्षा अधिक आकर्षक और प्रिय मान उसको अभिवंदना करता है। उस तत्त्वज्ञकी इस दृष्टिको 'निर्विचिकित्सा' कहते हैं। वह अविद्या मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले बड़े-बड़े साक्ष को स्वरूप बोध न होनेके कारण अपनी श्रद्धा एवं प्रशंसाका पात्र नहीं मानता | अध्यात्मके प्रशस्त मार्ग में जिनके पाँव आत्मीक दुर्बलताके कारण डग मगाते हैं और कभी-कभी जिनका आदर्श मार्गके स्खलन भी हो जाता है, जिनकी अपूर्णताओंको यह जगत् में प्रकाशितकर उन आत्माओंके उत्साहको नहीं गिराता है, कारण यह जानता है कि रागादि विकारोंके कारण किससे भूल नहीं होती ? भूलको दूर करने का उपाय निंदा करना या जगत् भरमें ढोल पीटते फिरना नहीं है, बल्कि त्रुटिको सार्वजनिक रूपमें प्रदर्शित न करके उस आत्मा के दोषोंका एकांत में परिमार्जन करनेका प्रशस्त प्रयत्न करना है । कुसंगति, अल्प अनुभव अथवा विशिष्ट ज्ञानियोंके सम्पर्क न मिलने के कारण सम्यकुज्ञानके मार्ग शिवलित होते हुए व्यक्तिको अथवा सदाचरण से आत्म दुर्बलताओं के कारण डिगते हुए व्यक्तिको अत्यन्त कुलतापूर्वक यह सन्मार्ग में पुनः स्थापित करता है। जबकि