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जैनशासन
विषयभोग मादि भौतिक विभूतियों से पूर्णतया अलिप्त है । इस प्रकार आत्म शक्ति
और उसके वैभवकी प्रगान श्रद्धासम्पन्न व्यक्तिका ज्ञान पारमाधिक अथवा सम्यकुजान कहा गया है, और उसकी आत्मकल्याण अथवा विमुक्ति के प्रति होनेवालो प्रवृत्तिको जैन ऋषियोंने सम्यक् चारित बताया है । बीस साहित्यमें इसे 'सम्यकम्यायाम' कहा है। ___हन आत्म-श्रद्धा, आत्म-बोध तथा प्रात्म-प्रवृत्तिको उन वाइमय में रत्नश्रयमार्ग कहा है। तत्वार्थ मूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने अपने मोक्षशास्त्र के प्रथम सूत्र में लिखा है--
'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" इस रत्नत्रयमार्ग में श्रद्धा, ज्ञान तथा आचरणका सुन्दर समन्वय विद्यमान है। इस समन्वयकारी मार्गको उपेक्षा करने के कारण हिन्दू धर्म में विभिन्न विचारधाराओंकी उदाति हुई है। कोई प्राद्धामे अपना भक्तिदोही संसारसंतरणका सेतु समझता है. तो ज्ञान-दृष्टिघारी 'ऋते ज्ञानान्न मुक्ति'-ज्ञानके निना मुक्ति नहीं हो सकती--कहता है । अर्थात ज्ञानको ही सब कुछ कहता है। इसने ही ज्ञान-योग नामको विचारधाराको जन्म दिया। इसका अतिरेक इतना अधिक हो गया, कि ज्ञान-योग की ओट में सम्पूर्ण अनर्थों और पाप-प्रयत्तियोंका पोषण करते हुए भी पुष्यचरित्र साधुओंके सिरपर सवार होनेका स्वप्न देखता है 1 कोई-कोई ज्ञानको दुर्वलताको हृदयंगम करते हुए क्रियाकांडको ही जीवनको सर्वस्थ निधि बताते हैं। तुलनात्मक समीक्षा करनेपर साधनाका मार्ग उपर्युक्त अतिरेकवादकी उलझनसे दूर तीनोंके समन्वयमें प्राप्त होता है। एक ऋषिने लिखा है-कर्मशूपका ज्ञान प्राणहीन है, अविवेकियोंकी क्रिया निःसार है, श्रद्धाविहीन बुद्धि और प्रवृत्ति सच्ची सफलता प्राप्त नहीं करा सकती । अंधे, लंगड़े और बालसो-जैसी बात है
"अंध पंगु अरु आलसो जुधे जरै दव लोय ।" साधनका सच्चा मार्ग वही होगा, जहां उपर्युक्त तीनों बातोंका पारस्परिक मैत्रीपूर्ण सद्भाव पाया जाय। उस दिन महावीरजयन्तीके जैन महोत्सवके अध्यक्ष के नाते नागपुर हाईकोर्ट के जस्टिस का सर भवानीशंकर नियोगीने उपयुक्त रत्नत्रयरूप साधनके मार्गका सुन्दर शब्दों में वर्णन करते हुए कहा था-The unity of heart, head and hand leads to liberation'-अक्षाका प्रतीक हृदय, ज्ञानका आसार मस्तिष्क तथा आचरणका निदर्शक हस्तके ऐक्यसे मुक्ति प्राप्त होती है। शान्तिसे विचार करनेपर समरीक्षकको स्वीकार करना