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आत्म जागरणके पथपर
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लोक अलोक अकाश माहि थिर, निराधार जानो । पुरुष रूप कर कटी भये षट्द्रव्यन सों मानो ॥ इसका कोई न करता. हरता अमिट अनादी है । जीव रु पुद्गल नाचे यामें, कर्म उपाधी है। पाप-पुण्य
जीव प्रगत में मिल मुख दुआ लरखा ।
धरता ॥
अपनी करनी आप भरे सिर औरत के मोह कर्मको नाश, मेटकर सब जनकी निज पदमें थिर होय, लोकके सीस करो वासा ॥
आसा |
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कविवर मंगत राय- बारह भावना
आत्म- जागरणके पथपर
इस विश्वको वास्तविकसासे सुपरिचित मानव गम्भीर चिन्तुनामें निमग्न हो सोचता है, जब मेरा आत्मा जड़-पुद्गल आकाश आदि गुण-स्वभाव आदिको अपेक्षा पूर्णतया पृथक है तब अपने स्वरूप की उपलब्धिनिमित्त क्यों न मैं समस्त सांसारिक मोहजालका परित्याग कर परम निर्वाण के लिए प्रयत्न करूँ ? भगवान् महावीरके समक्ष भी ऐसा हो प्रश्न था जब सारण्य श्रीसे उनका शरीर अलंकृत या और उनके पिता महाराज सिद्धार्थ उनसे विवाह बन्धनको स्वीकार कर राजकोय भोगोंकी मोर उनकी चित्तवृत्तिको खींचने के प्रयत्न में तत्पर थे 1 भगवान् महावीरका आमा सर्वप्रकार समर्थ एवं परितुष्ट था इसलिए उसने मकड़ीकी तरह अपना जाल बुनकर और उसीमें फेंस जीवन गवाने की चेष्टा न की, किन्तु सम्पूर्ण विकारोंपर विजय पर परिपूर्ण आत्मत्वको पानेके लिए दुर्बलताओं के वर्धक संकीर्ण गृहवासको तिलांजलि ने दिगम्बर मुद्रा धारण कर आत्मसाधनानिमित्त अन्तः बहिः सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य का प्रशस्त पथ स्वीकार किया और अपनी सच्ची और सुदृढ़ साधना के फलस्वरूप उन्होंने कर्म- राशिको चूर्ण कर अनन्त आनन्द, अनन्तज्ञान, अनन्त-शक्ति अविनाशी जीवन आदि अनुपम विभूतियोंका अधिपतित्व प्राप्त किया। लेकिन एकदम महावीर बनने के कठिन और लोकोत्तर मार्गपर चलने की क्षमता मोही और विषयों में फँसे हुए वासनाओंके दासों में कहाँ है ? जो बात्मा कर्मशत्रुओंका हस्तक बन अपने आत्म