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जेनशासन
कारण दो या अधिक परमाणु मिलकर बंधते हैं, तब पुंजीभूत परमाणु पिण्डको 'स्कन्ध' कहते हैं। वैशेषिक दर्शन अपनी स्थूल दृष्टि से सूर्यके प्रकाशम चलते फिरते धूलि आदिके कणों को परमाणु समझता है । ऐसे कथित कथा विभागरहित कहे जानेवाले वैशेषिकके परमाणुओंके वैज्ञानिकोंने विद्युत शक्तिकी सहायतासे अनेक विभाग करके अणुबोक्षण यन्त्रसे दर्शन किए है। जन दार्शनिकोंकी सूक्ष्मचिन्तना तो यह बताती है कि किसी भी यन्त्र आदिकी सहायतासे परमाणु हमारे नयन गोबर नहीं हो सकता । जो पदार्थ चक्षु-गुन्द्रियके द्वारा गृहीप्त होते हैं, वे अनन्त परमाणुओंके पिण्डीभूत स्कन्ध है। वैज्ञानिक जिसे परमाणु कहेंगे, जन दार्शनिक उसमे अनन्त स क्म परमाणुओंका सद्भाव बताएंगे। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण विकृतिका नाया का नया सबंख परमानाको दिव्य ज्ञानज्योतिसे प्रकाशित तत्त्वोंका उन्हें बोध प्राप्त हुआ है। इसीलिए वैज्ञानिकोंने जो पहिले लगभग सात दजनसे भी अधिक मूल तत्त्व (Elements) माने थे और अब जिनकी संख्या बहुत कम हो गयी है, उनके विषयमें जैनाचार्योने कहा है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले अनेक तत्त्व नहीं है । एक पुद्गल तत्व है जिसने बड़ेबड़े दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकोंको भूलभुलयामें फंसा अनेक मूल तत्त्वके माननको प्रेरित किया ।
वैशेषिकदर्शनकी नौ द्रन्यवाली' मान्यसापर विचार किया जाए, तो कहना होगा कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु नामक स्वतंत्र तत्वों के स्थान पर एक पुदुमलको ही स्वीकार करनेसे कार्य बन जाता है क्योंकि उनमें स्पर्शादि पुदगल के गुण पाये जाते है । दिक् तत्त्व आकाशसे भिन्न नहीं, आदि ।
जीव तथा पुद्गलमें क्रियाशीलता पायी जाती है । इनको स्थानसे स्थानान्तररूप क्रियामें सामान्य रूपसे तथा उदासीन सहायक रूपमें धर्म द्रव्य (Medium of Mution) नामके माध्यमका अस्तित्व माना गया है। इसके विपरीत जीव और पुद्गलको स्थिति में साधारण सहायक माध्यमको अधर्म द्वन्य (Medium of Rest) कहा गया है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य जैन दर्शनके विशिष्ट तत्त्व है । जगत-प्रख्यात सत्कर्म-असत्कर्म, पुण्य-पाप मघवा सदाचार-हीनाचारको सूचित करनेवाले धर्म-अधर्मसे ये दोनों द्रश्य पूर्णतया पृथक् है। ये ममन अथवा स्थिति कार्य में प्रेरणा नहीं करते, उदासीनतापूर्वक सहायता देते हैं । मछलियोंको जल में विचरण करने में सरोवर का पानी सहायक है, बल पूर्वक प्रेरणा नहीं करता । धान्त पथिकोंको अपनी छायामें विश्रामनिमित्त वृक्ष सहायता करते हैं, प्रेरणा १. पृभिव्य तेजोलाम्बाकाशकाल दिगास्ममनांसि नवैव"
तर्कसंग्रह सू०२