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जैनशासन
मात्माको ही विविध साम्प्रदायिक दृष्टिमाले अपनी-अपनी मान्यतानुसार पूजा करते हैं। क्या घवलवर्णका वस्त्र विविध काचकामलादि रोगदालेको अनेक प्रकारके रंगोंवाला नहीं दिखाई देता ?
भारतीय दार्शनिकों में तत्व-मीमांसासे अधिक ममत्त्व द्योतित करने के लिए ही अपने को मीमांभक बहनेवाला इग़ परमात्मतत्वकी गुत्थी को सुलझाने में अक्षम बन, उसे सर्वज स्वीकार करने में अपने आपको अममर्थ पाता है। आज भी उस दार्शनिक विचारधारासे प्रवाहित पुरुष कह बैठते हैं कि परम पवित्र, परिशुद्ध आत्माको हम परमात्मा सहर्ष स्वीकार करते हैं, किन्तु, उसकी सर्वज्ञता-युगपत् त्रिकाल-त्रिलोकदर्शीपने की बात हृदयको नहीं लगती। यह हो सकता है कि तपश्चर्या, आत्मसाधना, आत्मोत्सर्ग आदिके द्वारा कोई पुरुष अपने में असाधारण ज्ञानका विकास पान, किन्तु बाल विकास एक मागत्कार करने की बात तो कवि-जगत्की एक सु-मधुर कल्पना है जो तर्कको तीक्ष्ण ज्वालाको सहन नहीं कर सकती । जिस प्रकार कोई आदमी चार गज कूद सकता है तो दूसरा इसमें कुछ अनिकता कर सकता है। परन्तु, किसी आदमीके हमार मील एक क्षणमें कूदनेकी बात स्वस्थ मस्तिष्कको उद्भप्ति नहीं कही जा सकती। उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्वके चर-अचर अनन्तानन्त पदार्थोंके परिज्ञाताकी बात तीन कालमें भी सम्भव नहीं हो सकती । क्योंकि, जीवन अत्यल्प है। उसमें अनन्त और अपार तत्वोंका दर्शन नहीं हो सकता।
ऐसे मीमांसकोंका तर्क साधारणतया बड़ा मोहक मालूम पड़ता है, किन्तु, समीचीन विचार-प्रणालीसे इसकी दुर्बलताका स्पष्ट बोध हो जाता है। शरीरसे होनाधिक कूदने-जैसी कल्पना अभौतिक, अमर्यादित, सामर्यसम्पन्न आरमाके विषय में सु-संगत नहीं है । जिसने अन्धलोकमें रह केवल जुग नके प्रकाशका परिचय पाया है वह त्रिकालमें भी इसे स्वीकार करने में असमर्थ रहेगा कि सूर्य नामकी प्रकाशपूर्ण कोई ऐसी भी वस्तु है जो हजारों मीलोंके अन्धकारको क्षणमात्रमें दूर कर देती है । जुगनू-सदृश आत्मशक्तिको ससीम, दुर्बल, प्राणहोन-सा समाननेवाला पज्ञानताके अन्यलोकमें जन्मसे विचरण करनेवाला अज्ञ व्यक्ति प्रकाश. मान तेजपुन मात्माकी सूर्य-सदृश शक्ति के विषयमें विकृत धारणाको कैसे परिवर्तित कर सकता है, जबतक कि उसे इसका (सूर्यका) दर्शन न हो जाए।
१, "स्वामेव वोतसमस परवादिनोऽपि
नूनं प्रभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । कि कायकामलिमिरीश सित्तोऽपि शंखो हो गएते विविषवर्णविपर्ययेण ।। १८॥"-कल्याणमन्दिर ।