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विश्व स्वरूप यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकल विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १७ ।।"
भावनाद्वाविंशतिका
विश्व-स्वरूप
जो विश्व सर्वज्ञ, बीतराग परमात्माकी ज्ञान-ज्योत्तिके द्वारा आलोकित किया जाता है उसके स्वरूपके सम्बन्धमें विशेष विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। अन्न तत्त्व-ज्ञानके उदय तथा विकासके लिए साविक भावापन्न व्यक्ति यह सोचता है..
"को मैं ? कहा रूप है मेरा ? पर है कौन प्रकारा हो ? को भव-कारन ? बंध कहा ? को आस्रव-रोकनहारा हो ? खिपत बंध-करमन काहे सों? थानक कौन हमारा हो?"
कविवर भागचन्द्र तब आत्म-स्वरूपके साथ-साथ जगत् के अन्तस्तलका सम्यक परिशीलन भी अपना साधारण महत्त्व रखता है। साधारणतया सूक्ष्म चर्चाको कठिनतासे भीत ध्यस्ति तो यह कहा करता है कि विश्वके परिचयमें क्या घरा है, अरे लोकहित करो और प्रेमके साथ रहो; इसी में सब कुछ, । ऐसे व्यक्तियोंको पथप्रदर्शक यदि माना जाय तो जगहमें ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल आदिके विकासादिका अभाव होगा। यह सत्य है कि कृतिमें पवित्रताका प्रवेश हुए बिना परमधामकी प्राप्ति नहीं होती; किन्तु उस कृतिके लिए सम्पक ज्ञानका दीप आवश्यक है, जो मज्ञान-अंधकारको दूर करे ताकि मार्ग और अमार्गका हमें सम्यक्वोघ हो । जगतकी विशालता और उसके रंगमंचपर प्रकृति नटीकी भांति-भांतिकी लीलाओंके अन्य यनसे सम्यक् आचरणको जितना बल और प्रेरणा प्राप्त होती है, उतनी अन्य उपायोंसे नहीं । रेलका इंन्जिन जिस तरह वाष्प के बिना अवरुद्ध-गति हो जाता है, उसी तरह विश्व क्या है, उसमें मेरा क्या और कौन-सा स्थान है? आदि समस्याओं के समाधानरूपी घसके अभावमें जोवनकी रेल भी मुक्ति-पषमै नहीं बढ़ती।