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जैनशासन
भयंकर भारसे अभिभूत जगत् जहाँ आत्मतत्वके अस्तित्वको स्वीकार करने में कठिनताका अनुभव करता है, वहां त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोक्को युगपत् ग्रहण करनेकी बात उसके अन्त:करणमे बहे कस्टसे प्रविष्ट हो सकेगी। किन्तु सूक्ष्म चिन्सक और यौगिक साधनाओंके बलपर चमत्कारपूर्ण आत्मविकासको स्वीकार करनेवाले सताको सहज गिरोधार्थ कर उसे जीवनको चरम लक्ष्य स्वीकार करेंगे । इस सर्वज्ञता (Omniscience) के उत्पन्न होने के पूर्व भारमास राग, द्वेष, क्रोध, मान, माशा, संवाद विक्रम पूर्णतया विनाश हो जाना आवश्यक है। बिना इनके पूर्ण विनाश हुए आत्माका विकास नहीं हो सकता । निर्विकार परमज्योति परमात्मा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य सदश गणोंसे अलंकृत होता है । वह मंसारके राग-द्वेषमय प्रपंचसे पृथक रह स्वरूपमें निमग्न रहने हुए प्रेक्षकका कार्य करता है। सन्मागका प्रकाशन ऐसी आत्माके द्वारा विशेष समय पर होता है। उनका जीवन हो विश्वके लिए प्रमंका महान् उपदेष्टा होता है।
जगदुद्धारके लिए यह परमात्मा मानव रूपमें अवतार धारण करने आता है यह मान्यता चिसनीय है । कारण, यदि जगत्फे प्रति तनिक भी मोह रहा तो सर्वज्ञताका परम प्रकाश उस परम आत्माको नहीं मिलेगा । अवतारवादके विषयमें यह बात जाननी चाहिए कि विशेष परिस्थितिमें आवश्यकतानुसार धर्मसंस्थापन तथा अधर्म-उन्मूलन के लिए कोई सच्ची लगनवाला साधारण मानव अपनी आत्मशवित्तयोंका विकासकर विश्वोपदेष्टाका कार्य करता है और उसी समर्थ एवं पूर्ण आत्माको जगतु दिव्यात्माके रूपमें देखता है, मानता है तथा अर्चना करता है।
देखिए, आचार्य अमिताति कितने मार्मिक शब्दों में ऐसे स्वपुरुषार्थ के द्वारा बने परमात्माका मंगलमय स्मरण करसे है और जिससे जनधर्मके माम्य परमात्मम्वरूपका भी स्पष्टीकरण सुन्दर रूपमें प्रत्यक्ष हो जाता है
"यः स्मयंते सर्वमुनीन्द्रवृन्दर्य: स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १२ ।। यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव समस्तसंसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १३ ।। निषूदते यो भवदुःखजाल निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १४ ।। विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युठ्यसनाद्यतीतः । त्रिलोकलोको विकलोऽकलंकः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १५ ॥ क्रोडीकृताशेषशरीरिदर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः। निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १६ ॥