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जनशासन
इस प्रकार बहुजन-समाज-सम्मत जगत्-कत्तु स्वकी मान्यताके विरुद्ध तर्फ और अनुभवों के आधार पर विषयका विवेचन किया जाए तो वह एक स्वतन्त्र प्रम्य बन जाएगा और प्रस्तुत रचनाको समस्त परिधिको आत्मसात् कर लेगा । विशेष जिज्ञासुओंको प्रमेयकालमात पड', अष्टसहली, सातपरीक्षा आदि जैन न्याय तथा दर्शनके ग्रन्थोंका परिशीला करना चाहिए ! दान दोगः निगार होता है कि कर्तवादी साहित्यका भी सम्यक् प्रकार मनन और चिन्तन किया जाये तो उसीमें इस बातको सिद्ध करनेवालो परप्ति सामग्री प्राप्त होगी कि परमात्मा सत + चित + आनन्द स्वरूप है। जगत्का उद्धार करने और धर्म का संस्थापन करने के लिए अवतार धारण करनेवाले, कवि वेषभ्यासकी गीताके प्रमुख पुरुष श्रीकृष्णचन्द्रको वाणीसे ही यह सत्य प्रकट होता है कि-"परमात्मा न लोकका फर्सा है, और न कम अथवा कम फलोंका संयोग करानेवाला है; प्रकृति ही इस प्रकार प्रवृत्ति करती है, वह परमात्मा पाप या पुण्यका अपहरण भी नहीं करता। ज्ञानपर अशानका आवरण पड़ा है इसलिए प्राणी विमुग्ष बन जाते हैं।"
प्रकाण्ड ताकिक जैनाचार्य अकालंकने अपने अकलंकस्तोत्रमें न्यायकी कसौटी पर कसी गयी पूजनीय विभूति परमात्मापर प्रकाश डालते हुए उन्हें महान् देवताके
१. अनुभवके आधारपर साषचेतस्क कवि भूधरदासको वाणीसे क्या हो सुन्दर तक विधाताके सम्मुख उपस्थित हुआ है
सज्जन जो रचे तो सुधारस सौ कौन काज,
दुष्ट जोव किये काल-कूट सों कहा रही । दाता निरमापे फिर थापे क्यों कल्पवृक्छ,
याचक विचारे लघु तृण सही ॥ इष्ट के संयोग ते न सीरो घनसार कछु,
जगत को स्याल इन्द्रजाल सम है वही । ऐसी दोय दोय बात दीख विधि एक ही सी, काहे को बनाई मेरे घोखो मन है यही ।।८०||
-जनशतक २. तार्किक प्रभाचन्द्राचार्य । ३. आचार्य विद्यानन्दि । ४. "न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
R कर्मफलसंयोगे स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।"-गोता ५-१४,१५