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४६ चरणानुयोग प्रस्तावना
अनुमोदना सीख कृमि आदि की अनुमोदन की वर्षा के साथ अन्यतीयिकों के अदत्तादान सम्बधी भागों निषेध किया गया है । का निराकरण किया गया है।
निर्ग्रन्थ निग्रन्थिनी द्वारा परस्पर चिकित्सा करने सम्बन्धी प्रायश्चित की प्रबंध में निम्न बातों पर प्रायश्चित करने का विधान किया गया है। जैसे निर्ग्रन्थ द्वारा के पैरों आदि की साज-सज्जा, निर्ग्रन्थी द्वारा निर्भय के पैरों आदि की साज-सजा (परिकर्म), निन्य द्वारा निर्भीके व एवं निर्ग्रन्थ व्रणों गण्डादि की चिकियो करना, निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के व्रणों एवं गण्डादि की चिकित्सा, निग्रन्य और निर्बंन्धी द्वारा परस्पर एक दूसरे के कृमि निकालना आदि के प्रायश्चित का विधान जैसागमों में उपलब्ध है। इसी तरह के प्रायश्चित्त अन्यतीर्थिक या गृहम् द्वारा निकित्सा करवाने तथा उनकी चिकित्सा करने के सम्बन्ध में भी है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में असा नामक प्रथम महाव्रत के परिष्टिक के अन्तर्गत प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ, बारम्भ-सारम्भ समागम तथा अनारम्भ असारम्भ और असमारम्भ के सात-सात प्रकारों, प्राण सूक्ष्म, पनक सूक्ष्म, बीज सूक्ष्म, हरित सूक्ष्म, पुष्प सूक्ष्म, अण्ड सूक्ष्म, लयन सूक्ष्म (बिल) तथा स्नेह सूक्ष्म आदि आठ सूक्ष्मों की चर्चा और उनकी हिंसा का विषेध, दस प्रकार के अदम है। स्थविरों के विवाद जैसे महत्वपूर्ण विषय
साथ ही पाप श्रमण का स्वरूप, अन्यतीथिकों का साथ पृथ्वीकायिक हिंसा विषय का भी संकलन किया गया है ।
द्वितीय सत्य महाव्रत की चर्चा करते हुए मृषावाद विरगण महाव्रत की प्रतिमा एवं उनकी चर्चा है। पाँच भावनाओं तदनन्तर सत्य वचन की महिमा, सत्य वचन की छः उपमाएं, अवक्तव्य तथा वक्तव्य सत्य, सत्य वचन का फल और मृषावाद के प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है। इस प्रसंग में नहीं बोलने योग्य छः प्रकार के वचनों का निषेध किया गया है।
तृतीय अस्तेय महाव्रत प्रतिपादन करते हुए उसकी प्रतिज्ञा, उसकी पाँच भावनाएँ, दत्त अनुज्ञात संबर के आराधक, दत्त अनुज्ञात संबर के फल, अन्य भी साधना के उपकरण एवं स्थान का उपयोग हेतु ग्रहण के विधि-निषेध की चर्चा है। इसके पश्चात् यह कहा गया है कि राज्य परिवर्तन या राजा के वंश विच्छेद या पराजित होने पर परिवर्तन की स्थिति में नये राजा की अनुमति पूर्व ही नहीं बिहार एवं स्थान (अव) आदि का उपयोग कल्पनीय होता है। अन्त में अदत्तादान के प्रायश्चित्त का विशद विवेचन उपलब्ध होता है। इसमें किसी अन्य श्रमण के शिष्य या आचार्य के अपहरण का भी प्रायश्चित्त बताया गया है ।
age ब्रह्मचर्य महात्रत की चर्चा में ब्रह्मचर्य का स्वरूप, उसकी प्रतिज्ञा मैथुन विरगणयत की पोन भावनाएं बाप महिमा, उसकी संतीस उपमाएँ, उसके खण्डित होने पर सभी महाव्रतों का खण्डित हो जाना, ब्रह्मचर्य साधना की अनुकूल एवं प्रतिस्थितियाँ ब्रह्मचर्य की आराधना का फल की ब्रह्मचर्य साधना के अनुकूल बय प्रहर, जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया है । ब्रह्मचर्य की निष्नि साधना सम्बन्धी निर्देशों के साथ विविक्त शयनासन के सेवन का सुपरिणाम तथा स्त्री के साथ आसन पर बैठने, उसको इन्द्रियों के अवलोकन करने तथा वारानाजन्य शब्दों के उच्चारण का निषेध किया गया है। इसी प्रकार पूर्व अनुभूत भोगों के स्मरण का निषेध, विकारवर्धक आहार करने का निपेध, अधिक आहार करने का निषेध, विभूषा का निषेध, शब्दादि विषयों में आसक्ति का विषेध तथा वेश्याओ के निवास सम्बन्धी मार्ग में आवागमन का निषेध किया गया है। इसी चर्चा में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकारों का निरूपण भी स्पष्ट रूप से किया गया है। ब्रह्मचर्य का पालन क्यो किया जाये इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह अधर्म का मूल है तथा इसके पालन से स्त्रियों के सम्पर्क से होने वाले भवभ्रमण जन्य रोग नहीं होते हैं। ब्रह्मचर्य की इसी चर्चा में शारीरिक साज सज्जा कायादि का निषेध किया गया है।
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भिक्षु भिक्षुणी का परस्पर अथवा किसी गृहस्य से चिकित्सा करवाना या व्रण, गण्डादि की चिकित्सा करवाना एवं कृमि निकालने जैसे चिकित्सा के उपायों का सहारा लेने पर उनके प्रायश्चित्त का विधान किया गया है ।
परिकर्यकरण (वाय) की चर्चा के प्रसंग में शरीर परिकर्म, पादपरिक नसपरिकर्म, अपा-परिकर्म, ओष्ठ परि कर्म, उत्तरोष्य-रोग-शनि (दाढ़ी) परिवर्म दन्त परिकर्म चक्षुपरिकर्म, अक्षिण-परिकर्म, रोम-परिकर्म, केशपरिकर्ममादि की चर्चा है। इसी प्रसंग में स्वयं परिकर्म करने अथवा परस्पर अन्यतीर्थिकों एवं गृहस्थों से परिकर्म कराने सम्बन्धी प्रायश्चित्तों पर मी प्रकाश डाला गया है।
आगमिक सन्दर्भों से यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इसलिए मैथुन के संस्से अपने लिंग के स्पर्श और स्पर्श के आस्वादन का निषेध किया गया है। इसी प्रकार मैथुन सेवन के संकल्प से गुरु अंगों के प्रक्षालन आदि का भी निषेध किया गया। इसी प्रकार मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करने, वस्त्र हटाने, वासना सम्बन्धी अंगों का संचालन करने, उन्हें सजाने परिशिष्ट में तृतीय अदत्तादान महाव्रत को पांच भावनाओं संवारने हस्तकर्म से दीपंपात करने आदि का न केवल निषेध
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