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चरणानुयोग-२
एकान्त शयनासन के सेवन का स्वरूप
सूत्र ५७४-५७६
विवित्त-सयणासण-सेवणया सहवं...
एकान्त शयनासन के सेवन का स्वरूप५७४. एगन्तमणापाए, इत्थी-पसुविधज्जिए।
५७४. जहाँ कोई आता-जाता न हो ऐसे एकान्त स्थान का तथा सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥
स्त्री पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना
-उत्त. अ. ३०, गा. २८ विविक्त शयनासन तप है। प.-से कि तं बिवित्तस्यणासण सेषणया?
प्र-विविक्त शयनासन सेवनता क्या है ? उ.-विविस-सयणासण-सेवषया जंगं आरामेमु वा, उज्जा- 3-आराम-पुष्पप्रधान बगीचा, उद्यान, पुष्प फल युक्त
सुवा, देवकुलेसु वा, सहासु वा, पचासुवा, पणिय- बगीचा, देवकुल, सभा स्थान, प्याऊ, क्रय विक्रयोचित वस्तुएँ गिहेसु बा, पणियसालासु वा, इत्थी-पम-पंगसंसप्त- रखने के घर, कय-विक्रय योग्य वस्तुएँ रखने की शालाएं। इन विरहियासु बसहरसु फासुएसगिज्ज पोह-फलग-सेग्जा- स्थानों में जो स्त्री पशु तथा नपुंसक से रहित हो, प्रामुक एषणीय संथारगं उपसंपज्जितागं विहरई।
पौठ, फलक, शम्या संस्तारक प्राप्त कर विचरण करना विविक्त
शय्यासन सेवनता है। से तं पडिसंलोणया ।
यह प्रतिसलीनता है। से तं बाहिरए तवे । -वि. रा. २५ ८.७, सु. २१६ यह बाथतप का वर्णन सम्पन्न हुआ। विवित्तसयणासण सेवणया फलं
विविक्त शयनासन के सेवन का फल५७५. प.-विवित्त सयणासणयाए शंभते ! जीवे कि जणयह? ५७५. प्र.-भन्ते ! विविक्त शयनासन के सेवन से जीथ क्या
प्राप्त करता है? उ०-विवित्त सयणासणयाए णं चरित्तस्ति जणयइ, चरित्त द.--विविक्त शयनासन के सेवन से वह चारित्र की रक्षा
गुत्ते प णं जीवे विविसाहारे, बद्धचरित एगंतरए को प्राप्त होता है, चारित्र की सुरक्षा करने वाला जीव पौष्टिक मोक्खमाव पलिवन्ने भट्टविह कम्मगलिं निज्जरोह। आहार का वर्जन करने वाला, सुन चारित्र बाला, एकान्त में रत, -उत्त. अ. २६, सु.३३ अन्तःकरण से मोक्ष साधना में लगा हुआ आठ प्रकार के कर्मों
की गांठ को तोड़ देता है। अणेगविहा अपडिसंलोणा
अनेक प्रकार के अप्रतिसलीन-- ५७६. पसारि अपडिसंसोणा एणसा, सं जहा
५७६, अप्रतिमलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. कोहलपडिसंलोणे, २. माणअपहिसंलोणे, (१) क्रोध अप्रतिसलीन, (२) मान अप्रतिसलीन, ३. मायामपडिसलीणे, ४. लोभअडिसप्लीणे। (३) माया-अप्रतिसंलीन, (४) लोभ-अप्रतिसलीन । पसारि अपरिसलीणा पण्णता, त जहा
अप्रतिसलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. मणअडिसंतीणे,
२. बसपडिसंलोणे, (१) मन-अप्रतिसंलीन, (२) बचन-अप्रतिसंलीन, ३. कम्य अपडिसलाणे, ४. इन्दियसपउिसलीण। (३) काय-अप्रतिमलीन, (४) इन्द्रिय-अप्रतिसलीन ।
-ठाणं. अ. ४, उ, २, गु. २७८ पंच अपडिसलीणा पण्णसा, तं जहा---
अप्रतिसलीन पाँच प्रकार का कहा गया है१. सोतिदिय अपदिसली,
(१) श्रोत्रन्द्रिय-अप्रतिसलीन–शुभ-अणुभ शब्दों में राग
तुष करने वाला। २ चपिदिय अपडिसलीणे,
(२) चक्षुरिन्द्रिय-अप्रतिसलीन -भ-अशुभ रूपों में राग-द्वेष
करने वाला। ३. घाणिदिय अपउिसलीणे.
(३) ब्राणन्द्रिय अप्रतिसलोन- शुभ-अशुभ गन्ध में राग-द्रंप 'करने वाला।
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उन. रा. ३०