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सूत्र ६७२-६७५
परिहार कल्पस्थित भिक्षु की पंयावृत्य
तपाचार
[३३७
परिहारकप्पट्ठियस्स वेयावडियं --
परिहार कल्पस्थित भिक्षु की यावत्य६७२. परिहारकप्पट्ठियस्स गंभिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-विशा- ६७२. जिस दिन परिहार तप स्वीकार करे उस दिन परिहार याण सद्दिवस एगिहंसि पिडवाय स्वायत्तए।
कल्पस्थित भिक्षु को एक वर से बाहार दिलाना बाचार्य या
उपाध्याय को कल्पता है। सेणं परं नो से कप्पर असणं या-जाव-साइमं वा दाउं वा उसके बाद उसे अशन--यावत्-स्वादिम देना या बार-बार अणुप्पदावा कप्पड़ से अन्नयरं व्यावडिय करेत्तए, देना नहीं कल्पता है किन्तु आवश्यक होने पर कोई वैयावृत्य तं जहा
करना कल्पता है यथाउठ्ठावणं वा, निसीयावणं बा, तुयट्टावणं वा. उच्चार- परिहार कल्पस्थित भिक्षु को उठावे, बिठावे, करवट बदपासवण-खेल-जलसिंघाणाणं विगिवणं श विसोहेग वा लावे, उसके मल मूत्र अलेष्मादि परठे, मल-मूत्रादि से लिप्त करेत्तए।
उपकरणों को शुद्ध करे। अह पुण एवं जाणेजा-छिन्नाथाएमु पंथेसु आउरे झिलिए यदि आचार्य या उपाध्याय यह जाने कि-ग्लनि बुभुक्षित पिवासिए तबस्सी दुबले किलते मुच्छेज्ज श पवईज्ज घा, तृषित तपस्वी दुर्बल एवं क्लान्त होकर गमनागमन-रहित मार्ग एवं से कप्पद असणं वा-जाव-साइमं वा दाउ वा, अणुप्प- में कहीं मूच्छित होकर गिर जायेगा तो अशन-यावत्-स्दाबाउवा।
-कप्प. उ. ३, सु. ३१-३३ दिम देना या बार-बार देना कल्पता है।
नोट :--विनय के लिए देखिए ज्ञानाचार --चरणानुयोग प्रथम भाग १४ ७० से १६ तक
वैयावृत्य-२
वैयावृत्य स्वरूप६७३. आचार्य आदि सम्बन्धी दस प्रकार की वयोवृत्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्य कहा जाता है।
वेयावच्च सहवं६७३. आयरियमाईए, यावच्चम्मिदसविहे । आसेवणं जहायाम, वेषाव तमाहियं ।।
-उत्त. अ. ३०, गा. ३३ वेयावच्च करण चउभंगो-- ६७४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--
१ आतवेयावच्च करे गाममेगे, णो परवेयावच्चकरे,
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२. परवेयावच्चकरे गाममेगे, जो आतवेयाषच्चकरे,
३. एगे आतवेयापच्चकरे वि, परवेयावच्चकरे वि,
वैयावृत्य करने वालों को चौभंगी६७४,
(१) कई अपनी सेवा करते हैं किन्तु दूसरों की सेवा नहीं करते।
(२) कई दूसरे की सेवा करते हैं किन्तु अपनी सेवा नहीं करते हैं।
(३) कई अपनी सेवा करते हैं और दूसरे की सेवा भी करते हैं।
(४) कई अपनी सेवा भी नहीं करते और दूसरे की सेवा भी नहीं करते हैं । वैयावृत्य के प्रकार६७५. यावृत्य तीन प्रकार का है, यथा
(१) आत्मवैयावृत्य-अपनी सेवा
४. एगे जो आतबेयावमधफरे, जो परवेयावच्चकरे ।।
-साणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३१६ वेयावच्च पगारा१७५, तिविहे वेयावच्चे पणते, तं जहा
१. आयवेयावच्चे,