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पूष ७७३-७७४
उपसगों से अपीड़ित मुनि
वोर्याचार
[२८३
ओ तुमे नियमो विष्णो, भिक्खुभावम्मि सुस्वला । अगारमावसंतस्स, मख्यो संयजिए तहा ॥
हे सुब्रत ! तुमने भिक्ष जीन में जिस नियम का आचरण किया है, वह सब घर में बस जाने पर भी वैसे ही विद्यमान
विरं जमागस्स, दोसो सगि कुतो तव ।
तुम चिरकाल से मुनिचर्या में विहार कर रहे हो, अब तुम्हें इच्चेव णं निमंतेति, नीवारेण व सपरं ।। भोगों के सेवन से दोष कैसे बायेगा? वे भिक्षु को इस प्रकार
निमन्त्रित करते हैं जैसे चावल डालकर सूबर को। चौड़या भिक्खुचरियाए, अचयंता अवित्तए।
मिक्ष चर्या में चलने वाले किन्तु उसका निर्वाह करने में तत्य मंदा विसीयन्ति, उजाणंसि व दुन्मला ।। असमय मन्द पुरुष से ही बिषाद को प्राप्त होते हैं जैसे ऊँची
चढ़ाई में दुर्बल बैल। अचयंता व सूहेण, उवहाषण तज्जिता ।
__ संयम-पालन में असमर्थ तथा तपस्या से कष्ट पाने वाले तत्प मंदा विसीयंति, उज्जासि अरगवा ।।
मन्द पुरुष वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे कीचड़ में बूढा
बल। एवं निमंतगं ला, मुच्छिया गिद्ध इत्थी ।
विषयों में मूच्छित, स्त्रियों में गृद्ध और कामों में आसक्त अज्मोदेवण्णा कामेहि, चोइज्जंता गिहं गया ॥ भिक्ष इस प्रकार का निमन्त्रण पाकर समझाने बुझाने पर घर
--सूय. मु. १. अ. ३, उ. २, गा १५-२२ चले जाते हैं। उपसाग अणाहओ मुणो
उपसर्गों से अपीड़ित मुनि७७४. जहा संगामकालम्मि, पितृतो भीरु पेहति ।
७७४, जैसे युद्ध के समय डरपोक सैनिक पीछे की ओर गड्के, वलयं गहण नूम, को आणेद पराजयं ।।
खाई और गुफा को देखता है. इस विचार से कि-'कौन जाने
पराजय हो जाये ?' मृहत्ताणं मुत्तस्स, मुत्तो होसि तारिखो ।
घड़ी और घड़ियों में कोई एक घड़ी जय या पराजय की पराजियावसप्पामो, इति भीर उबेहति ॥
होती है, पराजित होने पर हम भागकर छिप सकें ऐसे स्थान
को डरपोक सैनिक देखकर रखता है। एवं तु समगा एगे, अबलं नस्त्राण अप्पर्य ।
इसी प्रकार कुछ श्रमण अपने को जीवन पर्यन्त संयम पालन अणागतं भयं हिस्स, अवकपतिमं सुर्य ।।
करने में असमर्थ जानकर भविष्य के भय को देखकर ज्योतिष
आदि शास्त्रों का अध्ययन जीवन निर्वाह के लिए करते हैं। को जापति विओवातं, इत्योओ उबगायो वा।
कोन जाने स्त्री या जल के परीषह न सह सकने के कारण चोदता पवखामो, नणे अस्थि पकम्पितं ।
संयम से पतन हो जाये ऐसी स्थिति में हमारे पास पूर्वोपार्जित धन भी नहीं है इसलिए किसी के कुछ पूछने पर निमित्त आदि
बताकर जीवा निर्वाह कर सकेंगे। इम पडिले हति, बलार परिलहिणो ।
छिपने के स्थान देखने वाले उपरोक्त प्रकार से सोचा करते वितिगिच्छ समावण्णा, पंचाणं व अकोविया ।। हैं। इस प्रकार संदेह से युक्त बने हुए वे वास्तव में मोक्ष मार्ग
को नहीं समझते हैं। जे उ संगामकासम्मि, नाता सूरपुरंगमा ।
जो पुरुष जगत् प्रसिद्ध व शूरवीरों में अग्रणी हैं वे संग्राम गते पिटुमुवेहति, कि परं मरणं सिया ।। काल में पीछे मुड़कर नहीं देखते । वे यह सोचते हैं कि . 'मरने
से अधिक क्या होगा ?' एवं समुदिए भिक्खू, बोसिज्जा गारबंधन।
इसी प्रकार घर के बन्धन को छोड़कर न मारम्भ का त्याग आरंभ तिरिय कट्ट, अत्तत्साए परिषए ।। कर उपस्थित भिक्षु आत्म-हित के लिए संयम में पराक्रम करे ।
-सूम. सु. १, अ. ३, उ.३, गा.१-७