Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 492
________________ ३६८] चरणानुपौग-२ वीर पुरुष का पराक्रम सूत्र ८०० ने खलु भो ! वीरा समिया सदा जया संघव सिणो आतो. "हे आर्यो ! जो साधक बीर है. पांच समितियों से सम्पन्न धरता अहा तहा लोग उवेहमाणा पाईगं पडोणं वाहिणं है, ज्ञानादि से सहित हैं, सदा संयत है, सतत जागरूक हैं. पापों उदोण हय सच्चसि परिविचिदिसु । साहिस्सामी गाणं वीरा से उपरत हैं, यथावस्थित लोक के स्वरूप को देखते हैं, पूर्व, समियागं सहियाणं सदा जयाणं संधश्वंसीषं आतोवरताणं पश्चिम, दक्षिण और उतर सभी दिशाओं में सर्वत्र सत्य (संयम) अहा तहा लोगमुव्हमाणाणं । में स्थित हैं, उन वीर समित, सहित, सदा यतनाशील, सतत जागरूक, पापों से उपरत, लोक के यथार्थ द्रष्टा शानियों के सम्यक ज्ञान की हम भी आराधना करेंगे" ऐसा साधक विचार करे । ५०–किमाथि उवाही पासगस्स ण विज्जति ? प्र-सत्यद्रष्टा बीर के कोई उपाधि होती है या नहीं? उ. णस्थि । - आ. सु. १, थ.४, उ.४, सु. १४६ 30-उसके कोई उपाधि नहीं होती है। आषोलए पीलए णिप्पोलए जहिता पुण्यसंजोग हिच्या ___ मुनि पूर्व संयोग का त्याग कर संयम स्वीकार करके पहले उखसम। कर्म व शरीर का आपीडन करे, फिर प्रपीडन करे और तदनन्तर निष्पीडन करे अर्थात् उत्तरोत्तर तप वृद्धि करे। तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिए सवा जए । इसलिए वीर मुनि सदा विषयों के प्रति रति और शोक से मुक्त आत्मरत समितियों से मुक्त और सामादि से सहित होकर सदा संयम में पल्ल करे। तुरणुचरो मग्गो वीराणं अगियट्टमामीणं, विगिध मंस मोक्षगामी वीर पुरुषों के मार्ग पर चलना कठिन होता है। सोगित। अतः हे शिष्य ! तू तपश्चर्या के द्वारा मांस और खून को सुखा दे। एस पुरिसे दविए वोरे आयाणिज्जे बियाहिते मे घुणाति जो साधक संयम स्वीकार कर कर्म क्षय करने में पुरुषार्थ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरसि । करता है वही पुरुष मोक्षार्थी वीर और संयमवान् कहा जाता है। --आ. सु. १, अ. ४, उ. ४, सु. १४३ कोहाइमाणं हणिया य वीरे, __ वीर पुरुष कषाय के आदिभूत अंग क्रोध और मान को नष्ट लोभस्स पासे णिरयं महंत । करे । लोभ को महान नरक के रूप में देखे । अतः लघुभूत मोक्षतम्हा य वीरे विरते वहाओ, गामी वीर हिंसा से विरत होकर विषय-वासना रूप माधव डिविषन सोयं लभूयगामी ॥ स्थानों को छिप-भिन्न कर डाले। गंपं परिणाय इहज वीरे, वीर पुरुष इस लोक में राग-द्वेष भादि कर्म बन्ध के कारणों सोयं परिणाय चरेक्ज बन्ते । को ज्ञपरिक्षा से जानकर प्रत्याख्यान परिशा से तत्काल ही छोड़ उम्मुगग- लई यह माणवेहि, दे, इसी प्रकार इन्द्रिय विषयों को भी जानकर दमितेन्द्रिय बन जो पाणिणं पागे समारंभेज्जासि ।। कार संगम में विचरण करे। इस मनुष्य जन्म में ही जीव को कर्मों से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है। अतः प्राणियों के प्राणों का संहार आदि सावध कार्य न करे। तम्हा रवि इक्स पंडिए, इसलिए राग-द्वेष रहित पण्डि- मुनि गुण दोषों का विचार पावाओ विरतेऽमिनिम्बु।। कर पाप से विरत और कषायों से उपशान्त हो जाए। वीर पणपा वीरा महाबीहि, पुरुष लक्ष्य तक ले जाने वाले उस शाश्वत महापय के प्रति सिक्षिपहं याज्यं धुर्व ॥ उद्यमशील होते हैं जो कि सिद्धि का मार्ग है। वेतालियमगमागओ, मणं वयसा कारण संबुडो। कमों का नाश करने वाले संयम मार्म को प्राप्त कर मुनि खेच्चा वित्तं च पायओ, आरंभं च सुसंघु चरेग्जासि ॥ मन, बचन और काया से संवृत होकर धन स्वजन और आरम्भ -सूय, सु. १, अ. २, उ.१, मा. २१-२२ का सम्पूर्ण त्याग कर संयम में ही विचरण करे ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571