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सूत्र ८०-८०८
कषायों को कृश करने का पराक्रम
वीर्याचार
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कसाय पयणु करणे परक्कमो -
कषायों को कृश करने का पराक्रम... ०७. इह आणाखी पंडिते अणिहे, एगमध्याणं संपेहाए धुणे ८०५. इस वीतराग आज्ञा का आकांक्षी पण्डित मुनि अनासक्त
सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अध्याणं । जहा जुनाई कटाई होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ कार्मण शरीर को प्रकम्पित हध्दयाहो पमत्थति एवं अससमाहिते, णिहे ।
कर ले । अपने कषाय-आत्मा को कृश करे, जीर्ण कर डाले । जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा स्नेह रहित होकर तप रूप अग्नि से कर्म-पारीर को
जला कर नष्ट कर डाले। विगिंच कोहं अधिकंपमाणे, इमं निरुद्धाज्य संपेहाए । दुक्लं मनुष्य जीवन अल्पायु है यह विचार करता हुआ साधक च जाण अदुवा गमेस्स, पुखो फासाइंच फासे । लोयं न स्थिर चित्त होकर क्रोध का त्याग करे। वर्तमान में अथवा पास विष्फंवमाण।
भविष्य में क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुःखों को जाने । क्रोधी पुरुष भिन्न-भिन्न नरकादि में विभिन्न दुःखों का अनुभव करता है। संसार के प्राणी दुःखों से संत्रस्त होकर इधर-उधर भटक
रहे हैं उन्हें तू देख ! मे णिचुरा पाहि कम्मेहि, अणिदाणा ते वियाहिता : जी गुण पाकमो स है, तो निदान (दुःव रहित) तम्हातिविज्जो णो परिसंजलेज्जासि ।
कहे गये हैं । इसलिए विद्वान पुरुष ! विषय-कषाय की अग्नि से -आ. सु. १, अ. ४, उ. ३, सु. १४१-१४२ प्रज्वलित न होवे। बंधण विमुत्तिए परक्कम
बन्धन से मुक्त होने का पराक्रम८०८. युकिज तिउज्जा, बंधगं परिणाणिया। ८०८. बोधि को प्राप्त करो और बन्धन को जानकर उसे तोड़ फिमाह बंधणं वीरे? किवा जाणं तिउट्टई ।। डालो । शिष्य पूछता है कि-'महावीर स्वामी ने बन्धन किसे
कहा है ? किस तत्व को जान लेने पर उसे तोड़ा जा सकता है?' चित्तमसमचितं वा, परिगिज्म किसामवो ।
जो मनुष्य चेतन या अचेतन पदार्थों में तनिक भी परिग्रहसन्न वा अणजाणाति, एवं दुषखा ण मुच्चई ।। बृद्धि रखता है और दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है वह
दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। सपं तिवायए पाणे, अवुवा अणेहिं घायए। ___ जो परिग्रही मनुष्य प्राणियों का स्वयं हनन करता है. दूसरों हपंतं वाऽणुजाणार, रं बढेति अप्पणो ।
से हनन करवाता है अथवा हनन करने वाले का अनुमोदन
करता है वह अपने पैर को बढ़ाता है। जस्सि फुले समुप्पन्ले, जेहि वा संवले गरे ।
जो मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिनके साथ ममाति लुप्पती माले, अन्नमन्नेहिं मुछिए । निवास करता है वह उनमें ममत्व रखता है । इस प्रकार परस्पर
होने वाली मूळ से मूच्छित होकर यह अशानी नष्ट होता
रहता है। वित्तं सोयरिया घेव, सबमेत न ताणए ।
धन और भाई-बहन ये सब रक्षा करने में समर्थ नहीं है संखाए जीवियं-व, कम्मुणा उ तिउति ॥
तथा जीवन' भी क्षणभंगुर है यह जानकर मनुष्य कर्म के बन्धन
को तोड़ डालता है। एए गंथे घिउक्कम्म, एगे समण-माहणा।
कुछ श्रमण ब्राह्मण इन उक्त धन-परिवार का परित्याग कर अयाणता विस्सिता, सत्ता कामेहि माणवा ।। देते हैं किन्तु विरति और अविरति के स्वरूप को नहीं जानते --सूय. सु. १, अ. १, उ. १, पा. १-६ हुए भी गर्व करते हैं। वे अज्ञानी पुरुण कामभोगों में आसक्त
हो जाते हैं।