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चरणानुयोग-२
धर्म में पराक्रम के लिए विव्य मानुषिक भोग की तुलना
सूत्र ५१६-५१६
एवमबीणवं भिक्खं, अगारि च वियागिया ।
इस प्रकार भिक्षु और गृहस्थ के पराक्रम-फल को जानकर कहष्णु जिच्चमेलिक्खं. जिचमाणे न संविदे ।। विवेकी पुरुष ऐसे लाभ को कैसे खोएगा? वह कषायों के द्वारा --उत्त.अ. ७, गा. १४-२२ पराजित होता हुआ क्या यह नहीं जानता कि मैं पराजित हो
रहा हूँ। यह जानते हुए उसे पराजित नहीं होना चाहिए । धम्मस्स परक्कमट्ठा दिव्व मणस्स भोग तुलणा - धर्म में पराक्रम के लिये दिव्य मानुषिक भोग की तुलना८१७. अहा कुसग्गे उदगं, समुद्रेण सम मिणे ।
८१७. मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग देव सम्बन्धी काम-भोगों की एवं मागुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । तुलना में वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके
हुए जल-बिन्दु की समुद्र से तुलना करता है । कुसम्गमेता इमे कामा, सनिम्मि आउए ।
____ इस अति-संक्षिप्त आयु में ये काम-भोग कुशाग्र पर स्थित कस्स हे पुराकाउं, जोगवखेमन संविवे॥
जल-बिन्द जितने हैं फिर भी किस हेतु को सामने रखकर मनुष्य
योग-क्षेम को नहीं समझता ? इह कामाऽणियटुस्स, अस? अवराई ।
इम मनुष्य भव में काम-भोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष सोच्या नेयाउयं भग्गं, अं भुमो परिभम्सई ।। का यात्म-प्रयोजन नष्ट हो जाता है। वह पार ले जाने वाले
वीतराग मार्ग को सुनकर भी बार बार भ्रष्ट होता है अर्थात्
जन्म मरण करता है। इह कामणियट्टस्स, अत्त? नावराई।
इस मनुष्य मन में काम-भोगों से निवृत्त होने वाले पुरुष का पूहवेहनिरोहेणं भवे देवे ति में सुयं ।।
आत्म प्रयोजन नष्ट नहीं होता है। वह औदारिक शरीर का
निरोध कर देव होता है -ऐसा मैंने सुना है । इजढो जुई जसो वणो, आउं सुहमगुत्तरं।
(देवलोक से च्युत होकर) वह जीव विपुल ऋद्धि, यश, भृम्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उच्चवज्जई ।।
वर्ण, आयु और अनुत्तर सुख वाले मनुष्य-कुलों में उत्पन्न
-उत्त. अ.७, गा. २३-२७ होता है। धम्मस्स परक्कमट्ठा उबएसो
धर्म में पराक्रम के लिए उपदेश - ८१८. बालस्स पस्स बालसं, अहम्म पडिबग्लिया ।
८१८. तू अमानी जीव की मूर्खता को देन कि वह अधर्म को चिच्चा धम्म अहम्मिल, नरए उववजई ।। ग्रहण करता है। और धर्म को छोड़कर अमिष्ठ बन कर नरक
में उत्पन्न होता है। धीरस्स पस्स घोरत, सम्बधम्माणुवसिगो।
सब धौ का पालन करने वाले धीर-पुरुष की धीरता को चिच्चा अथम्म धम्मि?, देवेसु उववज्जई ।।
देख कि वह अधर्म को छोड़कर धर्मिष्ठ बनकर देवों में उत्पन्न
होता है। तुलियाण मालमावं, अबास चैव पण्डिए।
पण्डित मुनि बाल-भाव और अबाल-भाव की तुलना करके चहउण बालभावं. अबाल सेषए मुणि ।। बाल-शव को छोड़कर चबाल-भाव का सेवन करता है।
-उत्त. भ. ७, मा.२८-३० धम्मस्स परक्कम कालो
धर्म में पराक्रम का समय८१६. जरा जाब न पोलैइ वाही जाब न बढ़इ ।
५१९. जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बड़े और जाविन्दिया न झायन्ति, ताव धम्म समायरे ।।
इन्द्रियाँ क्षीण न हों तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। --दरा.ज.क, मा. ३५