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चरणानुयोग-२
वीतराग भाव की प्ररूपणा
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असत्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी जीव दुःस्त्री होता है। इसी प्रकार वह भाव में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ भी आश्रयहीन होकर दुःखी होता है।
मोसस्स पच्छा य पुरत्यओ य,
पोगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाधयन्तो.
भावे अतिसो वुहियो अणिस्सो ॥ भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं,
कत्तो मुह होऊण कयाइ किचि । तरथोवभोगे वि किलेसदुक्खं,
निश्वत्तई जस्स कएण बुक्लं ।। एमेव भावम्मि गओ पओस,
उह दुक्खोहपरम्पराओ। पट्टचित्तीय चिणाई कम्म,
जं से पुणो होर कुहं विवाग ।। भावे विरत्तोमणुमो विसोगो,
एएष दुश्खोहपराम्परेग। न लिप्पई पवमझे वि सन्तो,
जलेण वा पोल्परिणोपलासं ॥
इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को किंचित भी सुख कब और कैसे हो सकता है ? मनोज्ञ भावों को पाने के लिए वह दुःख उठाता है, उनके उपभोग में भी उसे अतृप्ति का क्लेश और दुःख वना ही रहता है।
इसी प्रकार जो भाव से वेष रखता है वह भी उत्तरोत्तर अनेक दु.खों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष युक्त चित्त से वह जिन वमों का वन्ध करता है, वे कर्म भी उदय काल में उसके लिए दुःख रूप होते हैं।
किन्तु जो पुरुप भाव से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त हो जासा है जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार वह संसार में रहते हुए भी इन दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता ।
इस प्रकार इन्द्रिय और मन के विषय, रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु होते हैं। वे वीतराग के लिए कभी किंचित् भी दुःखदायी नहीं होते।
काम-भोग समता के हेतु भी नहीं होते और वे विकार के हेतु भी नहीं होते। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या राग करता है, वह तविषयक मोह के कारण विकार को प्राप्त होता है।
एविधियस्था य मगस्स प्रत्या,
बुक्खस्स हे मण्यस्स रागिणो । ते वयोवं पि कयाइ दुक्खें,
न वीयरागस्स करेरित किचि ।। न काममोगा समयं उर्वति,
नयादि भोगा बिगई उति । जे तप्पगोसी य परिमाही य,
___ सो तेसु मोहा बिगई उवे ।। कोहं च माणं च तहेव माय,
लोहं दुग्छ अरई रईच। हास भयं सोग पुमिस्थिवेयं,
नपुंसवेयं विविहे य मावे ।। आवजई एषमगर,
एवंविहे कामगुणेषु सतो। अग्ने य एयप्पभवे विसेसे.
कारणदीणे हिरिमे वइस्से ।। कप्पं न इच्छेन्ज सहायसिसळू,
पछाणुताय तवपमा । एवं विशारे अमियरुपयारे.
आवश्बई इन्विय बोरवस्से ॥
जो काम-गुणों में बासक्त होता है, वह क्रोध, मान, माया, लोभ तया जुगुप्सा अरति, रति, हास्य, भय, शोरु, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद तथा हर्ष विषाद आदि विविध भावों और इसी प्रकार के अनेक रूपों को प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त और भी उनसे उत्पन्न अन्य परिणामों को प्राप्त होता है जिससे बह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय बन जाता है।
___ यह मेरी शारीरिक सेवा करेगा-इस लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी इच्छा न करे । संयम तप का कोई प्रभाव न देख कर पश्चात्ताप न करे । क्योंकि इस प्रकार के संकल्प करने वाला इन्द्रिय रूपी चोरों का दशवर्ती बना हुभा अनेक प्रकार के विकारों को प्राप्त होता है।