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पूत्र ०३
मेधावी मान का पराक्रम
धीर्माचार
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जे लोमसी से पेज्जदसी,
जो लोभदर्णी होता है. वह रागदर्शी होता है, जे पेजवंसी से दोसईसी,
जो रागदी होता है, वह देषदर्शी होता है, जे बोसदसी से मोहवंसी,
जो द्वेषदर्शी होता है, वह मेहदी होता है जे मोहर्दसी से गम्मवंसी,
जो मोहदों होता है, वह गर्भदर्शी होता है, जे गम्भदंसी से जम्मदंसी,
जो गर्मदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है, से जम्मवंसी से मारवंसी,
जो जन्मदशी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है, जे मारदप्ती से णिरयवंसी,
जो मृत्युदर्शी होता है. वह नरकदर्शी होता है, जे णिश्यवंसी से सिरियदंसी,
जो नरकदर्शी होता है, वह तिय चदर्शी होता है, जे तिरियदंसी से दुक्ख इसी।
जो तिर्यचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है। से मेहावी अभिणियमा मोहंच, मागंच, माय च,
लोह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, मोह, गर्भ, च, पेज घ. दोसंच, मोहं च, गरुमं च, जम्म च, मार च, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को छोड़ दे। गरगं न, तिरिय च, दुक्खं च । एवं पाप्लगस्स बसण उबरयसत्पस्स पलियंतकरस्स, ___ यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा आदि असंयम
से उपरत एवं निराकरण द्रष्टा तीर्थकर भगवान का उपदेश है। आयाणं निसिद्धा सगळिम,
जो पुरुष कर्म बन्ध के कारणों को रोक देता है, वही स्व
कृत कर्मों का भेदन कर पाता है। ५. किमस्थि जवाही पासगस्स, विज्जति,
F- क्या सर्व द्रष्टा को कोई उपाधि होती है या नहीं ? उ०–णस्थि । आ. सु. १, अ. ३, उ. ४, सु. १२६-१३१ उ०—नहीं होती है। बहुं च खलु पावं कम्म पर।
___ इस जीव ने भूतकाल में अनेक प्रकार के पापकर्मों का बन्ध
किया है। सच्चमि धिति फुबह । एत्योवरह मेहाची सव्वं पावं कम्म अतः घेयं रस्त्रते हुए संयम पालन करते रहना चाहिए । सोसेति । -आ. सु. १, अ. ३.स.२, सु. ११६ ११७ सयम में लीन रहने वाला मेधावी समस्त पापकों का क्षय कर
डालता है। पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए उव- हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभांति समझ । सत्य की आज्ञा द्विए से मेहायो मार तरति।
में उपस्थित रहने वाला मेधावी संसार को पार कर लेता है। -आ. सु. १, अ. ३, उ. ४, सु १२७ जे महं अबहिमणे।
जो महान होता है, उसका मन बाहर नहीं होता । पवारण पवायं जाणेज्मा सहसम्मुझ्याए परवागरण अण्णसि पूर्व जन्म की स्मृति से, तीर्थकर से प्रश्न का उत्तर पाकर घा अंतिए सोचा।
या किसी अतिशय ज्ञानी से सुनकर तीर्थंकरों के बचन से विभिन्न
दार्शनिकों के वाद को जानना चाहिए। णिधेसं पातिवत्तेज्ज मेहावी,
मेधावी भगवदाज्ञा का अतिक्रमण न करे। सुपडिलेहिय सध्यमओ सरुवताए सम्ममेव समिजाणिया। किन्तु सब प्रकार से भली भांति विचार करके सम्पूर्ण रूप
से सम्यक् पालन करे। इह आरामं परिणाय अस्लोणगुसो परिक्वए निद्रियट्ठी वीरे इस जिनशासन में संयम को स्वीकार कर सर्व प्रकार से मागमेणं सदा परकमेज्जासि ।
आत्मगुप्त होकर विचरण करे, तथा मोक्षाभिलाषी वीर मुनि -आ. सु. १, अ. ५, उ. ६, सु. १७२-१७३ सदा आगम निर्दिष्ट आदेश के अनुसार ही पराक्रम करे।। अकम्मस यवहारो ण विमति ।
कर्मों से मुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार अर्थात् संसार
'भ्रमण नहीं होता। कम्मुणा उवाही जायति ।
संसार भ्रमण रूप उपाधि (दुःख) कर्म से ही होती है ।