Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 493
________________ सूत्र ८००-८०२ भिक्षु का पराकम वोर्याचार [३६६ - - - - सुस्यसमागो उबासेज्जा, सुप्पण्णं सुतवस्सियं । जो आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी, धृतिमान और जितेन्द्रिय वीरमुनि वीरा जे असपण्णेसी, धितिमंता जितिदिया ॥ हैं ये प्रज्ञावान तपस्वी गुरु की सेवा भक्ति युक्त उपासना करें। गिहे बीयमपस्संता, पुरिसाचाणिया मरा। ___गृहबास में प्रकाश न देखने वाले मनुष्य प्रनजित होकर पुरुषाते वीरा यहणुम्मुक्का, नायखति जीवितं ।। दानीय (आदरणीय पुरुष) हो जाते हैं। वे वीर मनुष्य अन्धन से - सूच, सु. १, २,गा. ३३-३४ मुक्त हो जति है और कभी असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते। दुबख लोगस्स आणित्ता बंता लोगस्स संजोग, जंति वीरा लोक के दुःखों को जानकर वीर साधक लोक संयोगों का महाजाणं । परेण परं अंति, णायकवनि जीवित। परित्याग कर मोक्षपथ को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे --आ. सु. १, अ, ३, उ. ४, सु. १२६ बढ़ते जाते हैं, किन्तु असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करते। भिक्खुस्स परक्कम -- भिक्षु का पराकम-- ८०१. भारस्स आता मुणि मंत्रएज्जा, ८०१. मुनि संयम-मार को वहन करने के लिए भोजन करे। कखेज पावस्स विवेग भिक्खू । पाप से सदा दूर रहने की इच्छा करे । दुःल से स्पृष्ट होने पर लुक्खेण पुढे धुपमातिएग्जा, शांति रखते हुए संयम का आमरण करे, युद्ध भूमि में जैसे सुभ? संगामसीसे व परं दमेजा।। पुरुषत्र के योद्धा का दमन करता है, उसी तरह साध कर्म रूपी शत्र का दमन करे। अनि हम्ममाणे फलगावती, किसी के द्वारा मारे जाने पर भी काष्ट पलक की भांति समागम कति अंतगहस । रहकर मुनि पण्डित मरण की आकांक्षा करता है। यह कर्म को मिधूय काम ग पवंचुप्ति, क्षीण कर जन्म-मरण के प्रपंच से छूट जाता है। जैसे कि धुरा अक्खरखए वा सग तिबेमि ॥ के टुट जाने पर गाड़ी का गमनागमन रुक जाता है। -सूय. सु. १, अ.७, गा. २६-३० आयगुत्त भिक्खस्स परक्कम आत्मगुप्त भिक्षु का पराक्रम-- ८०२. भिपखं चलतु पुट्ठा वा अपुट्ठा पा जे इमे आहाच गंधा ८०२. भिक्षु से पूछकर या बिना पूछे ही बनाए हुए आधाकर्मी फुसंति से हता हणह, खणह, छिवह, वहह, पत्रह, आलंपह, आहार के न लेने पर कोई गृहस्थ भिक्षु को कदाचित् रस्सी बिसंह, सहसक्कारेह, विष्परामुसह। ते फासे पुट्ठो धौरो आदि से बांध दे और आक्रोश में आकर नौकर आदि से कहे अहियाप्सए। वि-'इस को पीटो, घायल कर दो, हाथ पैर आदि अंग काट डालो, इसे जला दो, इसका मांस पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो, इसका सब कुछ लूट लो, जल्दी ही इसे मारो, इसे अनेक प्रकार से पीड़ित करो", उन दुःख रूप कष्टों के आ पड़ने पर धैर्यवान मुनि उन्हें समभाव से सहन करे। अदुवा आयारगोयरमाइक्से तक्कियाणमणेलिसं । अवुवा यह आत्मगुप्त मुनि उस पुरुष की योग्यता का विचार कर उसे गृत्तीए गोयरस्स अणु पुष्येण सम्म पडिलेहाए आयगुत्ते बुद्धहि मात्राचार समझाये अथवा अनुपम धर्म का स्वरूप समझाये। एवं पवेदितं। योग्य न हो तो मौन पूर्वक रहे। इस प्रकार अनुक्रम से पर्या-आ. मु. १, अ. ८, उ.२, सु. २०६ लोचना करते हुए एषणा समिति का सम्यक् रूप से पालन करे । ऐमा तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है। अप्पमसो कामेहि जवरतो पावकम्मेहि, धीरे आयगुत्ते खेयाणे, जो काम भोगों के प्रति अप्रमत्त है और पापकमों से उपरत है वह पुरुष यौर बात्मगुप्त और खेदज्ञ होता है। जे पज्जवजायसत्यस खेयपणे से असत्यस्स खेपणे । जे जो शब्दादि विषयों को विभिन्न पर्यायों से होने वाले मसत्याहस खेयष्णे से पज्जवजायसत्यस्स खेयरणे । असंयम को जानता है वह संयम स्वरूप को जानता है जो संयम -आ. सु. १, अ. ३, उ. १, मु. १०६ के स्वरूप को जानता है वह विपयों की विभित्र पर्यायों से होने वाले असंयम को जानता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571