Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 491
________________ सूब ७१६-७६९ पण्डित का पराकम बीर्याचार [३९७ विसेणि कट्ट परिणाय एस तिष्णे मुसे विरते विवाहिते। संसार-वृद्धि कराने वालो राग-द्वेष कषायरूप श्रेणी संतति -आ. सु. १, अ.६. उ. ३, सु. १८७-१८८(घ) को प्रज्ञा से जानकर उसे छिन्न-भिन्न करता है। बही मुनि तीर्ण. मुक्त एवं विरत कहलाता है। पंडियस्स परक्कम -- पण्डित का पराक्रम७६५. एवं जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं । मणभिक्कतं च खलु वयं ७६७. 'प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख अपना-अपना अलग है', संपेहाए सगं जाणाहि पंबिते । यह जानकर तथा 'यौवन एवं पाक्ति अभी समाप्त नहीं हुई है। पण्डित पुरुष ऐसा विचार कर अवसर को जानकर धर्म का आचरण करे। -जाव-सोथपण्णाणा अपरिहीणा, जाय-तपण्णागा अपरि- जब तक श्रोत्र-प्रज्ञान, नेत्र-प्रज्ञान, प्राण-प्रज्ञान, रसनाहोणा, जाब-घाणपणाणा अपरिहोणा, -जाव-जोहपणाणा प्रज्ञान और स्पर्श-प्रज्ञान परिपूर्ण है, इन अनेक प्रार की शारीअपरिहोणा, जाव-फासपश्याणा अपरिहीणा इच्चेहि विरूव- रिक शक्तियों के परिपूर्ण रहते हुए आत्महित के लिए सम्यक् स्वेहि पणाणेहि अपरिहोणे हि माय सम्म समणुवा- प्रकार से प्रयत्नशील बने । सेम्जासि। -आ. सु. १, अ. २, उ. २, सु. ६८ समत्तदसिस्स परक्कम समत्वदर्शी का पराक्रम७१८. मणी मोग समावाय, धुणे कम्म-सरीरगं । ७६८. मुनि संयम स्वीकार कर कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे पंतं गुहं सेवंति, वीप समत्तबंसिणो ॥ अथात् कर्म क्षय करने में पुरुषार्थ करे। यह जानकर समस्वदर्शी वीर नीरस और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं। एस ओघतरे मणी तिष्णे मुसे विरते वियाहिते ति बेमि । संसार समुद्र को पार करने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और -आ.सु. १, अ. २, उ. ६, सु. १६ (ख-ग) बिरस कहलाता है। जाति च बुदिध व हज ! पासे, हे आर्य! तू इस संसार में जन्म और जरा के दु:खों को भूतहिं जाग पडिलेह सात। देख ! तथा सभी जीवों के विषय में जान कि वे सभी सुख ही सम्हा तिविग्जो परमं ति बच्चा, चाहते हैं । भक्तः मोक्ष मार्ग को जानकर समरवदी बिद्वान मुनि समतवंसी ग करेति पावं किसी भी पाप कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। -था. सु. १, अ. ३, उ. २, सु. ११२ का अरघ के आणवे? एत्यपि अगहे परे । योगी के लिए भला क्या अति (शोक) है और क्या सम्म हासं परिचम मल्लीणगुत्तो परिव्वए । मानन्द है? इन दोनों अवस्थाओं से रहित होकर विचरण करे। -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२४ वह सभी प्रकार के हास्य आदि का त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को गुप्त करते हुए विचरण करे । मुत्तत्त सहवं मुक्तात्मा का स्वरूप७६६. जं आणेजा उपचालयं सं जाणेज्जा दूरालयं, जाना ७६६. जिसे तुम परम तत्व में स्थित जानते हो, उसे मोक्ष मार्ग पूरालइयं तं जागेज्जा उपचालयं । में स्थित जानो। जिसे तुम मोक्ष मार्ग में स्थित जानते हो उसे -था. सु.१, भ. १, उ. ३, सु. १२५ ही परम तत्व में स्थित जानो। धीरस्स परक्कम वीर पुरुष का पराक्रम - ८००. एम वीरे पसंसिए ने पवे पविभोयए। ८००, वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो कर्मों से बंधे हुए मनुष्यों को मुक्त करता है। उपट अहं तिरिय दिसामु से समबती सवपरिग्णाचारी ण वह कुशल साधक ऊँची दिशा, नीची दिशा और तिरछी लिपति छपरवेण वीरे। दिशाओं में सब प्रकार के समग्र विवेक के साथ चलता है। वह -आ. सु. १, ब. २, उ. सु.१०३ वीर हिंसा आदि पाप स्थान से लिप्त नहीं होता।

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