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चरणानुयोग-२
मैत्री भावना
पूत्र ७१३-७९६
अम्मागमितमि धातुहे, अहवा उपकमिते भवंतिए । जब प्राणी के ऊपर किसी प्रकार का दुःख आ पड़ता है तब एगस्स गई । आगई, बिदुभता सरणं ण मन्नई ॥ वह उसे अकेला ही भोगता है तथा उपक्रम के कारणों से आयु -सूय सु. १, अ. २, उ. ३, सु. १६-१७ नष्ट होने पर या मृत्यु उपस्थित होने पर वह अकेला ही परलोक
में जाता है तथा वहाँ से मरकर पुनः अकेला ही आता है। इस
लिए विद्वान पुरुष किसी को अपना शरण नहीं मानते। मेत्ती भावणा
मैत्री भावना७६४. पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, कि यहिया मित्तमिच्छसि। ७९४. हे पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो फिर बाहर अपने से
-आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२५ भिन्न मित्र क्यों दूद रहे हो? जावन्तविज्जपुरिसा, सखे ते बुक्खसंभवा ।
जितने भी अविद्यावान अज्ञानी पुरुष हैं, वे सब अपने लिए लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारंमि अणम्तए । दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। वे मूढ़ बने हुए इस अनन्त संसार में
बार-बार दुःखों से पीड़ित होते हैं। समिक्ख पडिए तम्हा, पासजाईपहे बहू।
इसलिए पण्डित पुरुष अनेक बन्धनों और जन्म मरण के अप्पणा समेसेज्जा, मेत्ति भएसु कम्पए ।।
स्थानों की समीक्षा कर स्वयं सत्य धर्म की गवेषणा करे और
--उत्स. अ. ६, गा.१-२ सब जीदों के प्रति मंत्री का आचरण करे। संबर भावणा
संवर भावना७६५ सम्हाऽतिविजो परम ति गया,
७६५. हिंसादि पाप के फल का ज्ञाता विद्वान मुनि परम-मोक्ष आर्यकर्वसी ग करेइ पात्र ।
पद को जानकर कभी भी पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता। अग्गं च मूलं च विगिच धीरे,
हे धीर ! तू अग्र अघाति कर्म (और मूल) धाति कर्म को पलिछिरियाणं णिकम्मरसी ॥ दूर कर, उन कमों को उन्मूलन करने से निकमंदी हो
जाता है। एस मरणा पमुश्चति, सेविटुपये मुणी।
वह आत्मदर्शी मुनि मरण से मुक्त हो जाता है, वही दास्तव में कर्म और संसार भय का द्रष्टा है। अथवा मोक्ष मार्ग का
जाता है। लोगसि परमवंसी विवित्तजीवी उवसन्ते, समिते सदा-जते लोक में जो परमदर्शी है, राग-ष रहित शुद्ध जीवन जीता कालमखी परिवए।
है, उपशान्त है, पांच समितियों से समित है, ज्ञानादि से सहित अ.सु. १, अ. ३, उ. २, सु. ११५-११६ है और सदा संयमशील होकर पण्डित भरण की आकांक्षा करता
हुमा विचरण करता है।
संयम में पराक्रम-६
पण्णावताण परक्कम
प्रज्ञावानों का पराक्रम७६६. एवं तेसि महावीराण निरराय पुम्बाई वासाईरीयमाणार्ण ७६६. चिरकाल तक पूर्यो या वर्षों पर्यन्त संयम में विचरण करने दवियाणं पास अहियासियं।
वाले, चारित्र संपन्न तथा संयम में प्रगति करने वाले महान वीर
साधुओं ने जो परीषहादि सहन किये हैं। उसे तू देख । आगतपण्णागाणं किसा बाहा भवंति, पयगुए य मंससोणिए। उन प्रज्ञावान मुनियों की भुजाएँ कृश होती हैं, उनके शरीर
में रक्त मांस बहुत कम हो जाते हैं ।