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परणानुयोग-२
समस्व बुद्धि से आत्म शक्ति का समुत्थान
पुत्र ७८२-७८६
फासे विरत्तो मणुओ विसोगो,
किन्तु जो पुरुष स्पर्श से विरक्त होता है वह शोक मुक्त एएण दुक्खोहपरम्परेण । बन जाता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से नलिम्पई भवमझ वि सन्तो,
लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार वह संसार में रहते हुए भी इन लेण व पोखरिणीपलासं ॥ दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
-उत्त. अ. ३२, गा. ७४-५६ मुहं मुहं मोह-गणे जयस्ते,
बार-बार शब्दादि मोह-गुणों पर विजय पाते हुए और अणेग-रूवा सभणं घरन्ते । रांयम मार्ग में विचरते हुए श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल फासा फुसन्ती असमंजसं च,
स्पर्श पीड़ित करते हैं। किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी द्वेष न तेसु पिषखू मणसा पउस्ते ।। न करे । मन्दा य फासा बह-लोहणिज्जा,
काम-भोगों के अल्प स्पर्म भी बहुत लुभावने होते हैं किन्तु सहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। संयमी उन स्पों में मन को न लगाये, क्रोध से अपने को बचावे, रक्लेज्ज कोहं विणएज्ज माणं,
मान को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ का त्याग माय ने सेबे परहेज लोहं ॥ करे। जे संखया तुच्छ परप्पवाद,
जीवन सांधा जा सकता है ऐसा कहने वाले अन्यतीर्थिक ते पिज दोसाणगया परजमा निस्सार वचन बोलने वाले हैं, वे राम हष युक्त होने से पराधीन एए अहम्मे ति दुगुछमाणो,
हैं। ये लोग धर्म-रहित हैं ऐगा सोच कर उनसे दूर रहता हुआ पंखे भुणे-जाव-सरौर-भेओ ॥ मुमुक्षु अन्तिम सांस तक संयम गुणां की आराधना करे।
--उत्त, अ. ४, गा. ११-१३
वीर्य-शक्ति-५
समत्तधिया वोरियपाउरणं -
समत्व बुद्धि से आत्म-शक्ति का समुत्थान - ७८३. जहत्य मए संघी झोसिते, एवमण्णत्य संधो दुज्योसए भवति, ७८३. जैसे मैंने इस ज्ञान, दर्शन और चारित्र से कर्म संतत्ति को तम्हा बेमि--'णो गिणहवेज्ज वीरिय'।
भय किया है वैसे अन्य मत में कर्म संतति को क्षय करना कठिन __-आ. सु. १, अ. ५. उ. ३, सु. १५७(म) है। इसलिए मैं कहता हूं कि- "भुमुक्षु साधक शक्ति का गोपन
न करे।" अप्पवीरिएण चत्तारि दुल्लभंगा
आत्म-बीर्य में चार अंग दुर्लभ७८४. चत्तारि परमंगागि, दुल्लहाणीह जन्तुणो।
७६४. इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम-अंग दुर्लभ हैं -- माणुसत्तं सुई सया, संजमि य बोरियं ।।
मनुष्य जन्म, धर्म श्रवण, धर्म में श्रद्धा और संयम में पराक्रम ।
-उत्त. ब. ३, गा.१ अप्पवोरिएण कम्माण-धुणणं
आत्म-बल से कर्म क्षय - ७६५. माणुसतंमि आयाओ, जो धम्म सोच्चा सरहे । ७८५. मनुष्य भव को प्राप्त कर जो व्यक्ति धर्म को सुनता है तबस्सी बीरियं लब, संखुड़े निझुमे रयं ।
और उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर
-उत्त. अ.३, गा.११ संवृत हो जाता है और कर्म-रज को नष्ट कर डालना है। मोणेग कम्मधुणणं--
मुनित्र से कर्म क्षय७८६. जं सम्मं सि पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणं ति यासहा ७६६. जो रामत्व को देखता है वह मुनित्व को देखता है, जो सं सम्मति पासहा ।
मुनित्य को देखता है वह समत्व को देखता है।
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