________________
सूत्र ७८२
स्पर्श को आसक्ति का निषेध
वोर्याचार
[३६१
women
जिस प्रकार घड़ियाल के द्वारा पकड़ा हुआ अरण्य-जलाशय के शीतल जल के स्पर्श में मग्न बना रागातुर भंसा विनाश की प्राप्त होता है उसी प्रकार मगोज्ञ स्पों में तीय आसक्ति करने वाला यह अकाल में ही विनापा को प्राप्त होता है।
जो अमनोज्ञ स्पर्श से तीन द्वष करता है, वह उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है इस प्रकार स्वयं के ही तीच द्वेष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःखो होने में स्पर्श का कोई अपराध नहीं है।
जो मनोहर स्पर्श में सर्वथा अनूरक्त होता है और अमनोहर गर्श सेहोष करता है, वह अज्ञानी दुःखां की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता।
-..
...:
-
-
फासेसु जो गिडिमुवेद्य तिब्ध,
अकालियं पाखद से विणास । राणाउरे सोय-जलायसन्ने,
गाहागहीए महिसे व रम्ने । जे पावि बोसं समुवेद तिव्वं,
तस्सिक्खणे से उ उबेच दुषखं । दुहन्तबोसेण सएण जन्तू,
न किंचि फास अबराई से ॥ एनन्तरले रुइरंसि फासे,
अतालिसे से कुणई पोस । दुपस्सस्स संपीलमुवेइ बाले,
न लिप्पई तेण मणी विरागो॥ फासाणगासाणुगए प जीवे,
चराचरे हिंसइ गरूवे । चित्तेहि ते परितावेह नाले,
पोखड अत्तगुरु किलि?।। फासागवाएगं परिग्गहेण.
Smuvi रणसनिमओये। वए विओगे य ह मुहं से,
संभोगकाल य अतित्तिलामे ।। फासे अतित्तं य परिम्गहे य,
सतोवसत्तो न उबेहु तुहि। अतुद्विदोसेण दुही परस्स,
लोभाखिले आययई अदत्त ।। तम्हाभिभूयस्स अदसहारिणी,
फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुस वइ सोमनोसा,
तस्थावि दुषखा न विमुन्धई से ।। मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ य,
पओगकाले य दुही तुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययरतो,
फासे अतितो बुहिमओ अणिस्सो॥ कासाणुरत्तस्स नरस्स एवं,
कस्तो सुहं होग्न कयाद किनि । सत्योपभोगे वि किलेसबुक्वं,
निवसई जस्स एण दुक्खं ॥ एमेव फासम्मि गओ पोस,
उवेइ दुक्खोहपरम्पराओ। पवुद्धचित्तो म चिणाद कम्म,
जं से पुणो होइ वुहं विवाये ॥
मनोहर स्पर्क में आसक्न जीव अनेक प्रकार के उस स्थावर जीवों की हिंसा करता है वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने पाला क्लेश युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को गरिताप पहुंचाता है।
स्पर्श में अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके बिना या वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग के गमय भी तृप्ति न होने के कारण दुम ही होता है।
जो स्पर्श में अप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त होता है, उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर दूगरों की स्पर्शवान वस्तुएँ चुरा लेता है।
वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और स्पर्ण परिग्रहण में अतृप्त होता है, अतृप्ति दोष के कारण उसके मायामृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता।
असल्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार यह स्पर्श में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ भी आश्रयहीन होता हुआ दुःखी ही होता है।
इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को किचित् भी सुख कब और कैसे हो सकता है ? अल्प सुख भी कहाँ से होगा क्योंकि मनोज रसों को पाने के लिए वह दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश और दुःख बना ही रहता है।
इसी प्रकार जो स्पर्श से ढोष रखता है वह भी उलरोसर अनेक दग्दों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वषयुक्त चित्त से वह जिन कर्मों का बध करता है। वे कर्म भी उदय वाल में उसके लिए दुःख रूप होते हैं।