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परगानुयोग-२
रूप की शासक्ति का निषेध
सूत्र ७७८-७७६
सहाणुगासाणुगए य जोवे,
मनोहर शब्दों में आसक्त जीव अनेक प्रकार के बस स्थावर चराचरे हिंसह गावे । जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने चित्तेहि ते परियावेई बाले,
वाला घलेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चराचर जीवों पोलेर अत्तार किलि? ।। को परिताप पहुंचाता है। सहाणुयाएण परिरहे
अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन उम्पायगे रक्षणस निनोये । में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके बिनाण या पए विओगे य काहं सुहं से?
वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग करने संभोगकाले य अतिसिला। के समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। सई अतित्ते य परिगहे य,
जो पाद में अतृप्त और उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त सत्तोयसत्ती न उवे तुट्टि। होता है, उसे कभी संतुष्टि नहीं हो सकती। वह असंतुष्टि के अतुट्टिदोसेण वही परस्स,
दोष से दुःखी बना हुआ मनुव्य लोभ के वशीभूत होकर दूसरे सोमाविले आययई अदतं ।। की शब्द वाली वस्तुएँ चुरा लेता है। सम्हाभिभूयस्स अदतहारिणो,
वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और शब्द सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे प। परिग्रहण में अतृप्त होता है । अतृप्ति-दोष के कारण उसके मायामायामसं वड्ढइ लोभदोसा,
मृषा की वृद्धि होती है नया माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी तस्थावि दुक्खा न विमुच्चई से। वह दुःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स एच्छा य पुरषी य,
असल बोलने के पहले और पीठ तथा बोलते समय भी पओगकाले य दुही चुरन्ते। जीव दुःखी होता है इसी प्रकार शब्द में अतृप्त होकर चोरी एवं अदत्ताणि (ममाययन्ती,
करता हुआ भी वह आश्रय हीन होकर दुःखी ही होता है । ___ सद्दे अतित्तो दुहिओ अगिस्सो ।। सद्दाणुरस्सस्स नरस्स एवं,
इस प्रकार शब्द में अनुरक्त पुरुष को अल्प सुख भी कब कतो मुहं होज्ज कयाइ किसि। और कैसे हो सकता है? क्योंकि मनोज शब्दों को पाने के लिए तस्थोवभोगे वि किलेसदुपखं,
भी वह दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का निव्वत्तई जस्म कएण दुकावं क्लेश और दुःख बना ही रहता है। एमेव सम्मि गओ पओस,
इसी प्रकार जो शब्द से टूव रखता है, वह भी उत्तरोत्तर उवद दुपयोहपरंपराओ। अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से पदचित्तो य चिणाद कम्,
घह जिन कर्मों का बन्ध करता है वे कर्म भी उदयकाल में उसके जसे पुणो होइ बुहं विवागे ।। लिए दुःख रूप होते हैं। सहे विरत्तो माओ विसोगो,
किन्तु जो पुरुष शब्द से विरक्त होता है वह शोक रहित एएण बुवखोहपरम्परेण । रहता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से न लिप्पई भवमझे वि सन्तो,
अलिप्त रहता है उसी प्रकार वह भी संसार में रहते हुए इन जलेण वा पोखरिणीपलासं ।। दुःख की परम्पराओं से अलिप्त रहता है।
-उत्त. अ. ३२, गा, ३५-४७ रुवासत्ति णिसेहो
रूप की आसक्ति का निषेध७७६. चक्स्सस्स एवं गहर्ष वयन्ति, त रागहे तु मणुनमाह। ७६. चक्षुन्द्रिय के विषय को रूप कहते हैं। जो रूप राग का संभोसोउं अमनमाह, समो उजो सेसु स वीयरागो।। हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है, जो रूप द्वेष का हेतु है उसे अमनोज्ञ
कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह बीतराग होता है।