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सूत्र ७३१-७३२
पण्डित वीर्य का स्वरूप
वीर्याचार
[३६५
याउयं सुयवाणात, उवावाय समोहते ।
वह मोक्ष की ओर ले जाने वाले सु-आख्यात धर्म को पाकर मुज्जो भुज्जो बुहावास, असुभत्तं तहा तहा ।। चिन्तन करता है कि-"प्राणी बार-बार दुःसमय आवासों को
प्राप्त होता है और उसके जैसा जैसा अशुभ कर्म होता है वैसा
वैसा अशुभ फल प्राप्त होता है।" ठाणी विविठाणाणि, बहस्संति न संसओ।
विविध स्थानों में रहे हुए जीव अपने स्थानों को अवश्य अणितिए अयं वासे, गायएहि य सुहीहि य ॥ छोड़ेंगे इसमें कोई संशय नहीं है। ज्ञामिजनों और मित्रों के साथ
यह संवारा (संयोग) नित्य नहीं है। एवमायाय मेहायो, अपणो गिदिमखरे।
अनित्यता का विचार कर मेघावी मनुष्य अपनी आसक्ति आरिवं उपसंपज्जे सवबम्ममका विथ ।
को छोड़ दे और सब दूषणों से रहित निर्मल आर्य धर्म को स्वी
कार करे। सहसम्मुइए जच्चा, धम्मसारं सुषेत्तु वा ।
धर्म के सार को अपनी मति से जानकर अथवा दूसरों से समुवट्टिते अणगारे, पच्चक्याय पायए॥
सुनकर उसके आचरण के लिए उपस्थित मणगार सम्पूर्ण पापों
का त्याग कर दे। ज किंवक्कम जाणे, आउक्लेमास अपणो ।
पण्डित अणगार अपनी आयु के क्षीण होने का कारण जान तस्सेय अंतरा सिप्पं, सिक्स सिक्खेज्ज पंडिते ।। कर उस के अन्तराल (शेष बचे काल) में भी शीघ्र ही संलेखना
अहण करे। जहा कुम्मे सअंगाई, सए हे समाहरे।
जैसे कछुमा अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, एवं पाबाई मेधावी, अक्षप्येण समाहरे।।
इसी प्रकार पण्डित पुरुष अपनी बात्मा को पापों से बचाकर
अध्यात्म में ले जाए। साहरे हत्य-पाचे य, म सबिवियाणि य ।
वह हाथ, पर, मन और पांचों इन्द्रियों का, बुरे परिणामों पावगं च परीणाम, मासादोसं घ तारिस ।।
का और भाषा के दोषों का संयम करे। यणु माणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए।
पण्डित पुरुष कषाय के परिणामों को जानकर अणुमात्र भी सातागार व णिहुते, उपसते गिहे परे ।' मान और माया का आचरण न करे । विवेकी साधक सुख
सुविधा तथा प्रतिष्ठा आदि में उद्यत न हो तथा उपशांत व
निस्पृह होकर विचरण करे। पाणे व णाइवातेज्जा, अविपर्ण पि य णादिए ।
कभी भी प्राणियों का अतिपात न करे, अदत्त भी न ले, सावियं ण मुसं यूया, एस धम्मे बुसीमतो॥ कपट-सहित झूठ न बोले यह मुनि का धर्म है। अतिक्कम सि वायाए, मणसा वि प पत्थए।
प्राणियों के प्राणों का अतिपात (पीड़न) वाणी से भी न सभ्यतो संबरे देते, आयाणं सुसमाहरे ।। करे, तथा मन से भी प्राणों का अतिपात न चाहे। सब ओर से
संवृत होकर रहे और इन्द्रियों का दमन करता हुआ मोक्ष मार्ग
का सम्यक् आराधन करे। कर च कज्जमाणं च, आगमेस्सं घ पावगं । ___ आत्म गुप्त और जितेन्द्रिय मुनि किये हुए, किये जाते हुए सव्वं तं गाणुजाति, आयगुत्ता जिहंदिया ।
और भविष्य में किए जाने वाले इन समन पापों का अनुमोदन -सूप. सु. १, अ. ६, गा. १०-२१ भी नहीं करते हैं। पण्डियधीरिय सरूवं--
पण्डित वीर्य का स्वरूप७३२. जे य बुद्धा महाभागा, बीरा सम्मत्तदंसिणो।
७३२. जो महाभाग वीर पुरुष बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी है उनका - सुर तेसि परक्कतं, अफलं होइ सम्बसो ।। पराक्रम शुद्ध और सर्वथा कर्म बन्ध से मुक्त होता है।
--सूय. सु. १, अ.८, गा. २३ १ पाठान्तर-अणुमाणं च मायं च सं परिणाय पंहिए।
सुयं मे इहमेगेसि एवं पौरस्स वीरियं ।।