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घरणानुयोग-२
तितिक्षा से मोक्ष
सूत्र ७३३-७३४
तितिक्खया मोक्ख
तितिक्षा से मोक्ष७३३. अप्पपिंडासि पाणासि, अप्प भासेज्ज सुबते ।
७२३. सुव्रत पुरुष थोड़ा भोजन करे, थोड़ा जल पीए, थोड़ा तेऽभिनिग्नुले वते, बीतनेही सदा जये ।।
बोले, सदा क्षमाशील, शांत, दांत और अनासक्त होकर सदा
संयम में पुरुषार्थ करे। प्राणजोगी समाटु, काय उसेग्न सम्बस।
मानयोग को सम्यग स्वीकार कर सभी प्रकार से काया का तितिमयं परमं जच्चा, आमोक्खाए परिष्वएम्जासि || व्युत्सर्ग करे, परीषहोपसर्ग सहन रूप तितिक्षा मोक्ष का परम -सूय. सु. १, अ.८, गा. २५-२६ साधन है-यह जानकर जीवन पर्यन्त संथम की साधना में
पराक्रम करे। समाहिजुत्तस्स सिद्धगई
समाधि युक्त की सिद्धगति --- ७३४. ओयं चित्तं समादाप, साणं समणुपमइ ।
७३४. राग-द्वेष से रहित निर्मल चित्त को धारण करने पर धम्मे ठिओ अविमणो, निवागमभिगच्छह ॥ एकाग्रतारूप ध्यान उत्पन्न होता है और शंका-रहित धर्म में स्थित
आरमा निर्वाण को प्राप्त करता है। इमं चित्तं समादाय, मुज्जो लोयंसि जायइ ।
इस प्रकार चित्त-समाधि को धारण कर आत्मा पुनः पुनः अपणो उसमं ठाणं, सण्णि-जाण जाणइ ।।
लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने उत्तम स्थान को जाति
स्मरण ज्ञान से जान लेता है। अहातचं तु सुमिणं, खिप्पं पासेइ संबडे ।
संवृत-आत्मा यथातथ्य स्वप्न को देखकर पीघ्र ही सर्व सव्वं वा ओहं तरति, सुक्खाओ य विमुच्चद्द ।। संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है, तथा शारीरिक और
मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। पंताई भयमाणस्स, विवित्तं सयणासणं ।
अल्प आहार करने वाले, अन्त-प्रान्तभोजी, विविक्त शयनअप्पाहारस्स दंतस्स, देवा बंसेति ताइणो ।
आसनसेवी, इन्द्रियों का निग्रह करने वाले और षटकायिक जीवों
के रक्षक संयत साधु को देव-दर्शन होते हैं। सषकाम - विरत्तस्स, खमतो भय - भेरवं ।
सर्वकाम-भोगों से विरक्त, भीम-भैरव परीषह-उपसर्गों के सजो से बोही भवद, संजयस्स तवस्सिगो ।। सहन करने वाले तपस्वी संयत को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । तवसा अवहर लेस्सस्स, सगं परिसुज्म ।
जिसने तप के द्वारा अशुभ लेश्याओं को दूर कर दिया है उडवं अहे तिरिय च, सध्वं समणुपस्सति ।।
उसका अवधिदर्शन अतिविशुद्ध हो जाता है और उसके द्वारा वह ऊहर्वलोक, अधोलोक और तिर्थक्लोक में रहे हुए जीवादि
सभी पदार्थों को देखने लगता है। सुसमाहियलेस्सस्स, अवितक्फस्स भिक्खुगो ।
___ सुसमाधियुक्त प्रशस्त लेण्या वाले, विकल्प से रहित भिक्षासवतो विप्पमुक्कल्स, आया जाणइ पज्जवे ।।
वृत्ति से निर्वाह करने वाले और सर्वप्रकार के बन्धनों से विप्रमुक्त आत्मा मन के पर्यवों को जानता है अर्थात् मनःपयंवज्ञानी
हो जाता है। जया से णाणावरणं, सव्वं होई बयं गयं ।
जब समस्त ज्ञानावरण कर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब तया सोगमलोग च, जिणो जाणति केवली ॥ वह मुनि केवली जिन होकर समस्त लोक और अलोक को
जानता है। जया से सणावरण, सव्वं होई खयं गये।
जब समस्त दर्शनावरण कर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तया लोगमलोग च, जिणो पासति केवली ॥ तब वह मुनि केवली जिन होकर समस्त लोक और अलोक को
देखता है।